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चतुर्विंशतिस्तोत्र
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अन्योन्याश्रित हैं इनके अभाव में वस्तु का सद्भाव ही नहीं रह सकेगा | हे सुविधि जिन इस तत्त्व के आप ही प्रतिपादक है क्योंकि आपका ज्ञान अतीन्द्रिय है | सामान्य धर्म अपेक्षा वस्तु सत् स्वभाव लिए हैं और विशेषापेक्षा उसी समय गौण रूप में असत् भाव भी लिए हैं । अन्य एकान्तवादियों को यह विरोध भासते हैं | परन्तु अनेकान्त सिद्धान्त के प्रणेता आपके दिव्यज्ञान से प्रसूत सिद्धान्त में यह अविरोध रूप से शोभित होता है, जीवन्त रहता है । क्योंकि वस्तु के दो धर्मों के निरीक्षण की आपने दी दृष्टियाँ निरूपित की हैं। जिस समय द्रव्य दृष्टि प्रयुक्त होती है तो वस्तु वही वही प्रत्यय से नित्य रूप प्रतिभासित होती है अन्यरूप नहीं | परन्तु उसी वस्तु का पर्यायार्थिक दृष्टिकोण से निरीक्षण किया जाता है तो नेति नेति यह नहीं ऐसी नहीं इस प्रकार अन्य रूपता स्थित होती है । कारण पर्याय क्षणिक होती हैं, परिवर्तनशील होती है । इसीसे तो वस्तु में एक ही समय में उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यत्व सिद्ध हो वस्तु को नाश से बचाता है है "सुविधि" नाथ सार्थक नाम चाले आपके सिद्धान्त में सर्वत्र अविरोध सिद्ध है ॥ ९ ॥
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हे शीतल जिन आप अपने निजात्मीय गुणों से भिन्नभूत अन्य अचेतन द्रव्य के रूप रसादि गुणों से सर्वथा शून्य- रिक्त होने पर भी अपने अनन्तगुणों से परिपूर्ण भरे हो, चारों ओर से अनन्तशक्तियाँ आपमें व्याप्त हैं, अतएव पूर्ण भरितावस्था होने से अशून्य हो । इस प्रकार का शून्याशून्य वैभव विरोधी होकर भी आपमें प्रमाण और नयों द्वारा विवेचन करने पर एक आश्चर्यकारी दृष्टिगत होता है । आप एक ही रूप भरित नहीं हो क्यों कि अद्भुत महिमा उभयरूपता में ही यथार्थ सिद्ध होती है । स्व से व्यापृति और पर से व्यावृत्ति होना ही वस्तु का यथाजात स्वरूप प्रकट होता है । क्योंकि प्रत्येक पदार्थ आपके सिद्धान्त में उभय धर्मात्मक ही सिद्ध है । आपके सत्यार्थ वस्तुस्वरूप निरूपण की महिमा मातृवत् सभी को आनन्द देने वाली हैं । इस माहात्म्य को कौन वर्णन कर सकता है। आपका चरित्र पूर्ण अलौकिक है ॥ १० ॥