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चतुर्विंशति स्तोत्र
है । क्षति तो कदाऽपि है ही नहीं? कुछ भी हानि नहीं होती है । अर्थात् पुरुष-आत्मा की कोई भी हानि नहीं होती । क्योंकि स्वाभाविक प्रकाश पुस से अणिमा गुमान महात्मा अाने ही पार्वव्यापी ज्ञान से भारत ही रहता है । कोई भी लोकादि पदार्थों की अपेक्षा से या उनके प्रमाण मात्र से ही प्रकाशित नहीं होता । उसकी स्वयं की प्रकाशक योग्यता ही इतनी है कि उसमें जितने लोक हैं उनसे भी यदि अनन्त लोक हों तो उन्हें भी प्रकाशित कर दे । अनन्तज्ञान अपने नाम के समान ही कार्यकारिता की क्षमता सम्पन्न है । उस ज्ञान की महिमा ही अगम्य है । अनन्तज्ञानका ही वह विषय हैं ॥ १५ ॥
यदि रवि उदय क्षितिज पर उदित होते ही प्रकाशन की इच्छा बिना ही समस्त लोक को प्रकाशित कर देता है । उसी प्रकार मोहाच्छन्न भी ज्ञान क्या 'पर' निकटवर्ती पदार्थों के प्रकाशन में अज्ञानभाव को प्राप्त होगा? नहीं होगा | अभिप्राय यह कि घने-बादल की घटाएँ घिरी रहने पर भी उदित होता हुआ बालरवि विश्वप्रकाशी ही रहता है, उसी प्रकार कर्मपटलघन से आच्छादित होता हुआ भी अपनी स्व-पर प्रकाशित शक्ति युक्त ही रहता है । भले ही तेज पुञ्ज सीमित रहे परन्तु नष्ट कदाऽपि नहीं होता, अपने स्व-पर प्रकाशी स्वभाव से सर्वथा रहित नहीं होता ॥ १६ ।।
ज्ञानांशुमाली का स्व पर प्रकाशक गुण स्वाभाविक ही है । अतः वह आभ्यन्तर और वाह्य शक्तियों अप्रतिहत प्रभा भार से पूर्ण भरित होता हैं । कारण वस्तु तत्त्व के स्वाभाविक गुण का घातक कोई भी हो ही नहीं सकता है । क्यों कि स्वभाव स्वभाववान से कभी भी किसी भी कारण से कोई भी पृथक करने में सक्षम नहीं हो सकता है | यदि स्वभाव नष्ट हो जाय तो स्वभावी भी तदाश्रय होने से नष्ट हो जायेगा । परन्तु यह अकाट्य नियम है कि सत् का कभी विनाश नहीं होता । अतः हे जिनेश्वर, आप एक मात्र इस चिद् शक्ति में ही नियत हो तथा पर पदार्थ पर ही हैं व