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= यशितितोत्र इस प्रकार आपकी देशना है । सिद्धान्त कहा है । प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने गुण धर्मों के साथ ही रहते हैं यह आपने सिद्धान्त निर्दिष्ट किया है ॥ ८ ॥
__ तत्व भूतकालीन अनन्त वर्तमान सम्बन्धी भी अनन्त भविष्य में होने वाली भी अनन्त पर्यायों से संयुक्त हैं । हे जिन आप इन अनंतानंत पर्यायों की पीत एक शुद्ध, अखण्ड चैतन्य स्वभाव में ही निमग्न हुए विराजते हो । शुद्ध पर्याय में अवस्थित अनन्त परमानन्द में स्थित हो || ९ ॥
हे जिन! आप अपने निजस्वभाव की गम्भीरता को तलस्पर्शीरूप से स्वयं के पुरुषार्थ से प्रकट विस्तृत करते हैं । तथा केवली समुद्घात के समय तो सर्वलोक व्याप्त हो जाते हैं । परन्तु यह विस्तृत अवस्था भी हम जैसे छद्मस्थ अज्ञ जनों को ज्ञात नहीं होती । हमारे लिए तो वह अतलस्पर्शी ही बनी रहती है । अर्थात् हमसे स्पर्शित होते हुए भी अज्ञात ही रह जाती है ।। १० ।।
हे जिन! आप अनन्तवीर्य के धारी हैं | इस अनन्तशक्ति की क्रिया हैं एक साथ एक समय में समस्त विश्व को देख लेना । अतः आप पूर्ण धीर-वीर सतत अन्तर्वाह्य जगत का निरीक्षण करते रहते हैं । अनन्तवीर्य के साथ रहने वाला अनन्तदर्शन है | जिससे आप विश्व दृष्टा हो दर्शनस्वरूपी प्रतिभासित होते हो । कारण प्रत्येक गुण अपनी-अपनी सत्ता लिए प्रकटदृष्टिगोचर होता है || ११ ।।
विधि व निषेध रूप धर्मों से संयुक्त आपका परमात्मतत्त्व अनेकरूप रूपों से जडित प्रतिक्षण प्रतिभासित होता है । अर्थात टांकी से उकेरे हुए के सदृश प्रतिविम्बित हो रहा है । हे जिन! आपका उञ्चल शुद्ध स्वरूप अन्तरहित-अनन्त युगपर्यायो को उस प्रकार धारण किये है कि त्रैकालिक रूप से उसी एकरूप रहेंगे । यह आपका आत्मतत्त्व अनन्तकाल तक इसी परमशुद्धावस्था को धारण कर प्रकाशित रहने वाला है || १२ ||
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