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चतुर्विंशति स्तोत्र
केवल दर्शन व ज्ञान, देखने, जानने रूप कार्य को निरन्तर अविच्छिन्न रूप से करते ही रहते हैं । क्योंकि यही उनका स्वभाव है | वस्तु स्वभाव जैसा होता है वैसा ही रहता है । उनके कर्ता भोक्तापन से आप स्वयं उल्लासभरे आनन्द में निमग्न रहते हो । अर्थात् निश्चयनय से आप अपने स्वरूप के ही ज्ञाता, द्रष्टा हो उस ज्ञानधन स्वरूप निज स्वभावलीन रहते हो || १९ ॥
इस प्रकार काप उत्प भाली होने से कर्ता होते हो, और वे झलकते हुए अन्य ज्ञेय कर्म कहलाते हैं | तथा आत्मा ही करणरूप ग्रहण करती है, आत्मा के लिए आत्मा में ही करती हुयी स्वभाव से षट् कारक रूप परिणति होती रहती है । अर्थात् अभेद रूप शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टि से आत्मा ही सर्वकारकी है ॥ २० ॥
सम्पूर्ण कर्ता, कर्म, क्रियादि कारकों की सामग्री को अपने ही में समाहित कर आप उल्लसित होते रहते हो । अर्थात् अभेद रूप से षट्कारकी अपने में होते हुए ज्ञाता दृष्टा रूप आप अपने ही अनन्त सुख का निरन्तर अनुभव करते हुए उसी सुख सागर में निमग्न रहते हो | आपका सुख अतीन्द्रिय है । उसमें कुछ भी परापेक्षता नहीं हो सकती ।। २१ ।।
आत्मस्वरूप ज्ञानज्योति स्वयं में स्वयं से अखण्डरूप से ज्योतिर्मय रहती है । यह प्रकाशपुञ्ज पारदर्शी होने से अन्तरंग और बहिरंग को प्रकट प्रकाशित करती है । अर्थात् स्व-पर प्रकाशक ही बनी रहती है । फलतः वेद्य वेदक भाव रूप आत्मा है, तदनुसार वह प्रतिभासित होती है यह सिद्धान्त आपने हमें दर्शित किया है | आत्म स्वभाव आत्मरूप से ही प्रभासित होता है 11 २२ ।।
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