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चतुर्विंशतिस्तोत्र
सम्पूर्ण पदार्थों की गुण, द्रव्य, पर्यायों को युगपत् एक समय में ज्ञात कर भी स्वयं अपनी चैतन्य वृत्ति को त्यागने में समर्थ नहीं होते । क्योंकि सद् का अभाव हो ही नहीं सकता। जड़ या अचेतन पदार्थ का सत्ता कितनी ही संस्कृत हो जाय अर्थात् चेतन के साथ मिलकर कितनी ही संस्कृत हुयी हो तो भी कभी भी चेतनत्व रूप से प्रतीति में नहीं आती । अभिप्राय यह है कि भगवन् आपके सिद्धान्त में एक द्रव्य दूसरे रूप परिणमन नहीं करते । स्व द्रव्यापेक्षा 'अस्ति' और पर द्रव्यापेक्षा 'नास्तित्व' धर्म ही सिद्ध होते हैं ।। १७ ।।
आपके सिद्धान्त की प्रतिपादक शैली स्याद्वाद मुद्रांकित है । 'स्यात् ' शब्द एकान्त का कट्टर विरोधी है । यह कठोरता पूर्वक पदार्थों की स्थिति को प्रत्यक्ष दर्शाती है । अनेक प्रकार से शब्दमार्ग में प्राप्त हो उनके अनेकार्थों सुसंस्कृत कर विभिन्न धर्मों में विचलित न होकर उन्हें सुसंस्कारित कर यथातथ्य रूप में वचनों का विषय बना देती है । स्याद्वाद शैली में ही यह क्षमता है कि विचित्र नाना धर्मों को अविरोध रूप से दर्शा सके || १८ |
वस्तु में अनेकों विरोधी धर्म विद्यमान रहते हैं, जो अनवस्थिति प्रतीत होती है, परन्तु हे देव आपके सिद्धान्त में वे सम्यक् अवस्थिति प्राप्त करते हैं । यद्यपि वाणी-वचनावली उन्हें कथन करने में एक साथ समर्थ नहीं हो तो मत होवे, क्योंकि शब्दों में एक साथ कथन की सामर्थ्य नहीं है । कारण उनमें महान अन्तर होता है । परन्तु आपका "अवक्तव्य" स्याद्वाद शैली का अंग उन सभी विरोधी धर्मो को व्यवस्थित बनाये रहता है । इसका अभिप्राय यह है कि परस्पर विरोधी धर्मों का एक साथ कथन नहीं हो सकता इससे उन धर्मों का अस्तित्व या वस्तु की सत्ता समाप्त नहीं हो जाती ।। १९ ।।
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