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चरचाशतक बहुत ही उपयोगी ग्रन्थ है । जैन समाजमें इसका खूब प्रचार है । सूत्र ग्रन्थोंके समान इसमें थोड़े बहुत विषय कहे गये हैं । इस ग्रन्थको अच्छी तरह पढ़नेसे जैन शास्त्रोंमें अच्छी गति हो जाती है । भाषामें इसकी कई टीकायें हैं, परन्तु उनमें एक तो बहुतसी त्रुटियां हैं और दूसरे उनकी रचना वर्तमान पद्धतिके अनुसार नहीं है इसलिए आज कल के लोग उनसे पूरा पूरा लाभ नहीं उठा सकते । इसलिए मैंने यह नवीन प्रयत्न किया है । आशा है कि उसे पाठक पसन्द करेंगे और इसका स्वाध्याय करके मेरे परिश्रमको सफल करेंगे।
ग्रन्थके मूलपाठके संशोधनमें बहुत सावधानी रक्खी गई है और ग्रन्थकर्ताकी मूलभाषाको ज्योंकी त्यों रखनेकी चेष्टा की गई है। ..
लगभग ४० पद्योंकी टीकाका संशोधन जैनसमाजके एक सुप्रसिद्ध विद्वानके द्वारा कराया गया है और शेषका पंडित वंशीधरजी शास्त्रीसे । गढ़ाकोटा निवासी श्रीयुत पं० दरयावसिंहजी सोधियाने भी एक बार इस टीकाको आद्योपान्त देखनेकी और संशोधन करनेकी कृपा दिखलाई है । उक्त तीनों ही विद्वानोंकी कृपासे मैं समझता हूं इस टीकामें बहुत ही कम भूलें रही होंगी और इसलिए मैं उक्त तीनों महानुभावोंका हृदयसे आभार मानता हूँ।
हीराबाग, बम्बई, । ता. ७-४-१९१३)
नाथूराम प्रेमी।