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________________ (७५८ ) में भी प्राप्त न हो सके और संक्रमण अवस्था को भो करण और उत्कर्षण करण होते हैं और प्रकृतियों को प्राप्त न हो सके उन्ने नित्तिकरण कहते हैं । अपनी अपनी जाति की जहां बंध से ज्यूच्छित्ति है वहीं । तक संक्रमण करण होता है, जैसे कि ज्ञानावरण की (१०) मिकामना-जिस कर्म की उदारणा, पांचों ही प्रकृतियां परस्पर में स्वजाति हैं उनकी बंध संक्रमण, उत्कर्षण, और अपकर्षण वे चारों ही अवस्थाय व्युच्छित्ति १०वे गुरा स्थान में होती है। इसलिये उनका न हो सके उसे निकापना करण कहते हैं । इसको निका संक्रमण करण भी १० गुरण स्थान तक होगा। चित, निष्काचना ऐसे भी कहते हैं। इस प्रकार दशकरणों का स्वरूप जानना (देखो गो० १७) १४वे प्रायोग केवली गुण स्थान में जो ८५ क. गा० ४३७ से ४४०, प्रकुतियों का सत्व रहता है उसका अपकर्षण करत ४०. गण स्थानों में कर्म प्रकृतियों के इनकरणों के सयोगा कयली गुण स्थान के अंत समय तक होता है। संभव दिखाते हैं (कोष्टक नं० ११६ और १२५ गाथा ३३३ से ३४१ १) पहले मिथ्यात्व गुण स्थान से लेकर वे देखो) अपूर्वकरण गुण स्थान पर्यत 'दस करण' होते हैं। (८) क्षीण कषाय जो १२वे गुण स्थान में सख ने नरकादि चारों प्रायु कर्म प्रकृतियों के संक्रमणकरण' व्यच्चिन हुई १६ प्रकृति तथा १०वा सूक्ष्म सांपराय गुण के बिना एकरण होते हैं और शेष सय प्रकृतियों के स्थान में सरव से व्यच्छित्तिरूप हा जो सक्षम लोभ इन 'दश करण' होते हैं। १७ प्रकृतियों का क्षयदेश पर्यंत क्षय होने का ठिकाना (२) हवे अनिवृत्तिकरण और १०वे सूक्ष्म सांपराये तक अपकर्षण करण जानना उस क्षय देश का काल यहां गण स्थान में अंत के उपशम-निपत्ति-निकाचना इन पर एक समय अधिक आदली माव है, क्योंकि ये 10 तीनों करणों को छोड़ कर शेष प्रादि के ७ ही करण प्रकृतियां स्वमुखोदयी है, सारांश यह है कि प्रकृतियां वो होते हैं। प्रकार की हैं। एक स्वमुखोदयी दूसरी परमुखोदयी। (३) ११३ उपशांत मोह, १२वे क्षीण मोह, १३वे सयोग केवली इन तीन गुण स्थानों में संक्रमणकरण' स्वमुखोदयी-जो भगने ही रूप उदयफल देकर नष्ट के बिना ६ ही करण बंध, उत्कर्षण, अपकर्षरण, हो जाय वे स्वमुखोदयी है, उनका काल एक समय अधिक उदारणा, सत्व, उदय ये ६) होते हैं । पावली प्रमाण है, वही क्षयदेश (क्षय होने का (1 ११३ उपशांत मोह गुण स्थान में कुछ विशेष ठिकाना है। बात यह है कि इस गुण स्थान में मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय (सम्पङ मिथ्यात्व) इन दोनों का संक्रमण परमुखोयी-जो प्रकृति पन्य प्रकृति रूप उदयफल करण' भी होता है, अर्थात् इन दोनों के कर्म परमाण देकर विनष्ट हो जाती है वे परमुखोदयी है. उनका सम्यक्त्व मोहनीय (सम्यक्त्व प्रकृति, रूप परिणाम जाते क्षयदेश अंत कांडक की अंतफालि है ऐसा जानना। हैं, किन्तु शेष प्रकृतियों का संक्रमण करण' नहीं होता, ६ ही करण होते हैं। ___१६) देवायु का अपकर्षण करण ११वे उपशांतमोह (५) १४वे प्रयोग फेवली गुण स्थान में सत्व और गुण स्थान पर्यंत है और मिथ्यात्व, सम्प, मिथ्या उदय ये दो ही करण पाये जाते है। सम्यक्त्व प्रकृति ये ३ प्रकृतियां और 'निरपति रिक्से, १६) जिस गुण स्थान में जिस प्रकृतियों की जहां सफ इत्यादि सूत्र से कथित इवे प्रनिवृत्ति करण गुण स्थान में बंध व्युछित्ति होती है वहाँ तक उन प्रकृतियों का बंध क्षय हुई १६ प्रकृतियां इन १६ प्रकृतियों का चयन -4AA
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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