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________________ ( ७५७ ) १८. पांच भागहारों का (देखो गाथा ४०६) ग्रल्प बहुत्व कहते हैं - (१) सर्व संक्रमण भागहार का प्रमाण सबसे थोड़ा । उसका प्रभारण एक रूप कल्पना किया गया है । (२) गुण संक्रमण भागहार का प्रमाण सर्व संक्रमण भागहार से असंख्यात गुणा है अर्थात् पत्य के अर्धच्छेदों के असंख्यातवें भाग ( इतना ) है । (२) अधः प्रवृत्त संक्रमण नामा मागहार का प्रमाण गुणसंक्रमण भागहार से असंख्यात गुणे अपकर्षण और उत्कर्ष भागहार है । तो भी ये दोनों जुदे जुड़े पत्य के अच्छेदों के प्रसंख्यातवे माग प्रमाण हो है । क्योंकि असंख्यात के छोटे बड़े की अपेक्षा बहुत भेद हैं इससे प्रध प्रवृत्त संक्रमण भागहार असंख्यात गुरार है । सूचना – जिसके भागहार का प्रमाण जादा होगा उसका भागाकार कम होगा अर्थात् कम परमाणु का संक्रमण होगा और जिसके भागहार का प्रमाण कम होगा उसका भागाकार जादा होगा अर्थात् जादा होगा परमाणु का संक्रमण होगा । ३६. वश करणों के नाम- बंध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा सत्व, उदय, उपशम, निघत्ति, निकाचना ( freeाचना ), ये ददा करण ( अवस्था) हर एक कर्म प्रकृति के होते हैं । (४) विध्यात संक्रमण नामा भागहार का प्रभारण अधः प्रवृत्त संक्रमण भागहार से असंख्यात गुरणा है । अर्थात् सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । दशकरण अवस्था चूलिका (१) बंध कमी का आत्मा से सम्बन्ध होना, अवात् मिथ्यात्वादि परिणामों से जो पुद्गल द्रव्य का ज्ञानावरणादिरूप होकर परिणमन करना जो कि ज्ञानादिका आवरण करता है, वह बंध है । (२) उत्कर्ष - जो कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग का बढ़ना वह उत्कर्षरण है । (५) उद्वेलन संक्रमण भागहार का प्रमारा विष्यात संक्रमरण भाग हार से असंख्यात गुणा अर्थात् सूच्यंगुल के श्रसंख्यातयें भाग इतना है । इससे कर्मों के अनुभाग की नाना गुण हानि शलाका का प्रमाण अनंत गुणा है। इससे उस अनुभाग की एक गुणा हानि के आयाम का प्रमारण अनंत गुणा है। इससे उसी की डेढ़ गुण हानि का प्रमाण उसके श्रावे प्रमाण कर अधिक है इससे दो गुणा हानि का श्राधा गुण हानि के प्रसारण कर अधिक है इसी को 'निषेकहार' कहते हैं । इस से उस अनुभाग की अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण अनंतगुणा जानना । (देखो गो० क० गा० ४.० से ४३५ ) (३) संक्रमण जो वधरूप प्रकृति का दूसरी प्रकृति रूप परिणमन जाना वह संक्रमण है । (5) अपकर्ष - जो स्थिति तथा अनुभाग का कम हो जाना वह श्रपकर्षण है । (५) उबीरणा उदयकाल के बाहिर स्थित, धर्माद जिसके उदय का अभी समय नहीं आया है ऐसा जो कर्मद्रव्य (निषेक) उसको अपकर्षण के बल से उदयावली काल में प्राप्त करना (लाना) उसको उदीरणा कहते हैं । (६) सस्य जो पुद्गल का कर्मरूप रहना नह सत्य है । (७) उदय- जो कर्म का अपनी स्थिति को प्राप्त होना अर्थात् फल देने का समय प्राप्त हो जाना बह है। (८) उपशम- जो कर्म उदयावली में प्राप्त न किया जाय अर्थात् उदीरणा श्रवस्था को प्राप्त न हो सके वह उपशांत-उपशम करगा है। (E) निशि- जो कर्म उदीरणा अर्थात् उदयावल 7
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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