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________________ [ ७५२ ] होने पर सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय का अन्न- की, स्थिति मनुभाग के घटाने रूप, भूतकालीन स्थिति मुंह तक अध: प्रवृत्त संक्रमगा होता है और उढलन कांडक और अनुभाग कांडक तण गुण अंगी प्रादि भागहार सक्रमण उपांत्य कांडक तक ग्रन्त के समीप के परिणामों में प्रवृत्ति होना विध्य त संक्रमण है। भाग) नियम से प्रवता है। वहां पर अधःप्रवृत्त संक्रमण (३. प्रषःप्रवृत्त सक्रमण -बन्धरूप हुई प्रकृतियों का फालिरूप रहता है। एक समय में संक्रमण होने को। अपने बन्ध में सम्भवती प्रकृतियों में परमारपत्रों का जो 'फालि' कहते हैं। प्रदेश संक्रमण होना वह अधःप्रवृत्त संक्रमण है। अध:प्रवृत्त संक्रमरण में फालिरूप संक्रमण होता है (४) गुण सक्रमण- जहां पर प्रतिसमय असंख्यातऔर समय समूह में संक्रमण होना 'कांडक' कहा जाता। गुणवणी के क्रम से परमाणु प्रदेश अन्य प्रतिरूप परिण है। उद्लन संक्रमण कांडकल्प से होता है। देखो गो. म सा गुरगसक्रमण है। क० गा० ११२): (५)समसंक्रमण -जो अन्त के कांडक की अन्त की फालि के सर्यप्रदेशों में से जो अन्य प्रकृतिरूप नहीं हुए हैं उलन प्रकृतियों का विचरमकांड तक उचलना- उन परमानों का अन्य प्रकृतिरूप होना वह सबसंक्रमण सकमा होता है । और अन्त के कांडक में नियम से है। (देखो गोल क• गा० ४१३) । गुणसंक्रमण होता है और अन्तकांडक के अन्त की फालि प्रकृतियों के बन्ध होने पर अपनी अपनी-अपनी बन्ध मे सवंसंयम होता । ऐसा जानना। व्युच्छित्ति तक अन्य प्रकृतियों का प्रघ: प्रवृत्तमंक्रमण रूम्पतत्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय ये दो प्रकृतियां होता है । परन्तु मिथ्यात्य का संक्रमण पहले गुण स्थान उलन प्रकृनियों में समाविष्ट हैं । इसलिये उन प्रकृतियों में नहीं हाता क्योंकि 'सम्म मिच्छ मिस्सं' इत्यादि गाथा में उलन सक्मगा, गुमासंक्रमण और ससंक्रमण होता के द्वारा इसका निषेध पहले ही बता चुके हैं और बंध की पुच्छित्ति होने पर ये असंयत से लेकर ७ अप्रमदत्त गणहै। (देखो गाथा ६१२ से ६१७)। स्थान तक विध्यात नामा सक्रमण होता है तथा वे अपूर्वयहां पर प्रसंगवश पांचों संक्रमणों का स्वरूप कहते करण गुरण से पाये ११वें उपशांत कषाय गुरास्थान पर्यंत करण गुरण० स! बंध रहित अप्रशस्त प्रकृत्तियों का गुणसंक्रमण होता है। इसी तरह प्रथमोपशम सम्यवस्व ग्रहसा होने के समय प्रथम (2) उलन संक्रमरण-अध:प्रवृत्त, अपूर्व करण, समय से लेकर मन्त५हूर्त तक गुणसंक्रमण होता है और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणरूप परिणामों के बिना ही क्षायिक सरपक्व प्राप्त करते समय मिथ्यात्व का क्षय कमप्रकृतियों के परमाणुयों का अन्य प्रकृतिरूप परिशमन करने के लिये मित्र और सम्यमत्व प्रकृति के पूर्ण काल में हाना वह उन लन सक्रमण है। (गाथा ३५०-४१५ अपूर्व-करणपरिणामों के द्वारा मिथ्यात्व के अन्तिम कांडक देखो)। की उपांत्य फालिपर्यंत गुणसंक्रमण पोर चरम (अन्तिम) (२) विध्यान्न संक्रमण--मन्द विशुद्धता वाले जीव फालि में सबसंक्रमण होता है। (देखो गो० क० गा० ४१६) । -. - --.- .-- -..
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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