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________________ ऊपर जो प्रनिवृत्ति करण गूगण स्थान में प्रकृतियों वेदनीय कर्म केवलौ के इन्द्रिय जन्य सुख-दुःख का का ध्युच्छित्ति बताया है उनमें से ३ वेदों की ज्युपित्ति कारण नहीं है-जिस कारण केवली भगवान के एक सवेद भाग में और संग्वलन कषाय के क्रोध-मान-माग साता नाय का ही बन्ध सो) एक समय की स्थिति इन ३ का प्युच्छित्ति मधे भाग में जानना। वाला ही होता है, स कारण वह उदय स्वरूप ही है। क्षीणमोह गा० के विचरम समय में निद्रा और और इसी कारण प्रसाता का उदय भी साता रूप से ही प्रचला इन : प्रकृत्तियों का और अन्त समय में शेष १४ परिणमता है क्योंकि प्रसाता वेदनीय सहाय रहित प्र० का व्युच्छित्ति जानना । होने से तथा बहुत हीन होने से मिष्ट जल में सारे जल की एक बूद की तरह अपना कुछ कार्य नहीं कर सकता, सयोग केवली गुरण में ३० की और अयोग केवली इस कारण से केवली के हमेशा सातावेदनीय का ही गण में १२ प्रकृतियों की व्युच्छिति होती है यह नाना उदय रहता है। इसी कारण ससाता देव के निमित्त जीवों की अपेक्षा से और सबोगी में २६ की और प्रयोगी से होने वाली क्षुधा प्रादिक जो ११ परिषह है वे जिन में १३ की व्यच्छित्ति होती है, यह बेदनीय के दो प्रकुतियों पर देव के कार्य रूप नहीं हुग्रा करती हैं। (देखो गो० की अपेक्षा से जानना। का गा०२६४ से २७५ और को० नं.६०) २६. अवय मोर उबीरणा को प्रकृतियों में कुछ अन्य गुण स्थानों में जैसे साता लथा असाता के विशेषता बताते हैं - उदय से इन्द्रिय जन्य सुख तथा दुःख होता है वैसे केवली उदय और उदीरणा में स्वामीपने को अपेक्षा कुछ भगवान के भी होना चाहिये ? इसका समाधान केवली विशेषता नहीं है. परन्तु वें प्रमत्त गूगण स्थान पौर भगवान के घातिया कम का नाश हो जाने से मोहनीय १३वां सयोगी, तथा १४वां अयोगी इन तीनों गुण स्थानों के भेद जो राग तथा द्वेष वे मष्ट हो गये और ज्ञाना- छोड़ देना अर्थात इन तीनों गुण स्थानों में ही विशेषता है वरण का क्षय हो जाने से जानावरण के अयोपशम से और सब जगह समानता है । सयोगी और प्रयोगी केवली जन्य इद्रिय ज्ञान भी नष्ट हो गया। इसका कारण की ३० पोर १२ उदय क्युच्छित्ति प्रकृतियों को मिलाना केवली साता तथा प्रसाता जन्य इन्द्रिय विषयक सुख- और उन ४२ में से साता, असाता और मनुष्याय इन दुःख लेशमात्र भी नहीं होते क्योंकि साता आदि वेदनीय तीन प्रकृतियों को घटाना चाहिये और पटाई हो साता कर्म मोहनीय कर्म की सहायता से ही मुम्न-दुःख देता हुया प्रादि तीन प्रकृतियों की उदीरणा वें प्रमत्त जीव के गुण को घातता है। यह बात पहले भी कह गुण स्थान में ही होती है । बाकी ४२-३-३६ प्रकृतियों आये हैं। अत: उस सहायक का अभाव हो जाने से वह को उदीरणा सयोग केवली के होती है तथा वहां ही जली जेवड़ीवत् (रस्सी; अपना कुछ कार्य नहीं कर उदीरसाा की पुच्छित्ति भी होती है । और प्रयोग केवली सकता 1 के उदीरणा होती ही नहीं यही विशेषता है। (देखो गोल क० मा २७८-२७६-२८०)। (१) संवलेश परिणामों से ही इन तीनों की उदीरणा होती है। इस कारण अप्रमत्तादि के इन तीनों की उदीरा का होना असम्भव है।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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