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________________ : : दीन्द्रिय । श्रीन्द्रिय , चतुरिन्द्रिय, : : वैक्तिपिक , ' को० | सूक्ष्म १५ को" तेजस " कार्माण ॥ सुभग देवगति १० को को सा० उपपात एकेन्द्रियजाति .को. को० सा परषात १५ को० को सा० उच्नवास प्रतिप उद्योत पंचेन्द्रिय त्रस औदारिक शरीर स्थावर बादर माहारक , अंत: को को. सा. अंत को को | २० को को सा० सागर पर्याप्त २.कोको सा अपर्याप्त १८ को को० साल समचतुरस्र सं. १० को को सा० प्रत्येक शरीर २. को को सा. न्यग्रोध प० सं० १२ को० को सास साधारण शरीर १८ को० को० सा० स्वाति संस्थान १४ को० को सा० स्थिर १. को.को. सा कुब्जक मस्थान १६ को० को सा० अस्थिर २० को को० सा. वामन सहान १८ को० को० सा० १० को. को० साल हुँडक संस्थान २. को० को० सा० प्रशुभ २० को० को सा० औ-मगोपांग १० को० को० सा दौक्रियिक ।। दुर्भग २० को० को साल पाहारक , अंत को० को० सा० अंत: को को. | सुस्वर १० को-को सान वजव. ना. संह०,१० को० को० सा० साधर को को सा! बचनाराच संह. १२ को पो. सा | प्रादेय १० को को मा० नाराच संहनन १४ को० को सा०| अनादेय २० को. को० सा० अर्धनाराच संह०१६ को को० सा० यशः कीति १० को को० सा० महतं कीलिनसंहनन १८ को को० सा० प्रयशः कीर्ति २० को० को सा. भसं० सृपा० संह०२० को० को सा निर्माण स्पर्श नामकर्म तीर्थकर प्रकृति अंतः को. . सा मंत: को को.. ७. गोत्रकर्म के | 1 सागर उच्चमोत्र को को. सा. ८ मूहर्त नीचगोत्र २० को० को० सा० नरक गत्यानुपूर्य ८-अंतराय के १ अंतर्मुहूर्त दानांतराय मनुष्य , १५ को को० सा० लाभांतराय देव , '१० को० को० सा० भोगांतराय प्रशस्त दिहाः ॥ उपभोगांतराय प्रशस्त विहा० २. को को. सा. वीर्या तराय अगुरु लघु ! गंध " वर्ण " तिर्यच " को साः ॥ सूचना-तीन शुभ प्रायु के सिवाय शेष क्रमों का उत्कृष्ट स्थितिबंध संजीपंचेन्त्रिय पर्याप्त के उसमें भी योग्य. (तीन कषायरूप उत्कृष्ट संक्लेश-परिणामों वाला ही जीव अधिक स्थिति के योग्य कहा गया है। जीव के हो होता है। हर एक के नहीं होता (देखो गो. क. मा० १३३)
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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