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________________ जाय ने तातें प्रागति दोय, गति इनको देवन की होय । कम भूमिया तिर्यच सत्त, श्रावक ब्रत धरि बारम गत्त ॥१६॥ सहलार ऊपर तिरं जायें नहीं ये सजि परपंच । अग्रत सम्यक्त्वी नरभाय, बारमते उपर नहि जात ॥२०॥ अन्यमती पंचारती साध, भवनत्रिकतें जाय न बाघ । परिव्राजक दण्डी है जेह, गनम परे नाहि उपजेह ॥२१॥ परमहंस नामा परमती, सहस्रार ऊपर नहिं गती। मोक्ष न पावे परमत माहि, जैन बिना नहि कर्म नशाहि ।।२२।। श्र बक प्रार्य अणुश्त घार, बहुरि श्राविकागरण अविकार । अच्युत स्वर्ग परे नहि जाय, ऐसो भेद कहो जिन राय ।।२३।। द्रव्य लिंग धारी जो जती, नव वेयक मागे नहिं गसी । बाह्याभ्यन्तर परिग्रह होय, परमत लिंग निद्य है सोय ॥२॥ पंचपंचोत्तर नव नवोत्तरा, महामुनो बिन और न धरा। कई बार देव जिय भयो, 4 केई पद नाही लयो ॥२५॥ इन्द्र हवो न शची हू भयो, लोकपाल कबहूं नहिं थयो। लोकास्तिक वो न कदापि, अनुत्तर यह पहुंचो न कदापि ॥२६॥ वे पद धरि बहु पद नहि धरे अल्पकाल में मुक्तिहि बरे। हे विमान सर्वारथ सिद्ध, सबसे ऊंचों अतुल जु रिद्ध ॥२७॥ ताके ऊपर है शिवलोक, परे अनन्तानन्त प्रलोक । गति-प्रगति देवन को भनी, अब सुनलो मानुष गति सनी ॥२८॥ चौबीसों दण्डक के माहि मनुष जाय यामें शक नाहि । मुक्ति हु पावे मनुष मुनीश, सकल धरा को है अवनीश ॥२६॥ मुनि बिन मोक्ष न पावे और, मनुष बिना नहि मुनि को ठौर । सम्यम्दृष्टी जे मुनिराम, भवधि उत्तरें शिवपुर जाय ॥३०॥ सहाँ जाय पविनश्वर होय, फिर जगमें प्रावे नहि कोय । रहे सासते आतम माहि, प्रातमराय भये शक नाहि ॥३॥ गति पच्चीस कही नरतनी, ग्रामति पुनि बाईस हि भनी। लेजकाय अरु बात जु काय, इन बिन और सर्व नरथाय ॥३२॥ गति पच्चीस प्रागति बाईस. मनुषतनी भाषी जगदीश । ता ईश्वरसम' पातमरूप, ध्याचे चिदानन्द चिद्रूप ॥३३॥ तो उतरे भवसागर भया, और न कोऊ शिवपुर लया । ये सामान्य मनुष की कही. अब सुनि पदवी घरको सही । ३४।। तीर्थकर की प्रागति दोय, . सुर नारकतें प्राचे सोय । फेर ने गति धारे जगईश. जाय विराजे जग के शीस ॥३५।।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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