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________________ २४ २५ २६ २७ २५ २६ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ( ६९३ ) सूचनाः कल्पवासी देवों में जाने वाले के विग्रह गति में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व भी अनाहारक अवस्था में होता है इस प्रपेक्षा से उपसं सम्यत्व भी नहीं घट सकता केवल प्रथमोपसं सम्यत्व में मरा न होने की अपेक्षा ही उपसं सम्यक्त्व पट सकता है । वाहनाको० नं १६ से ३४ तक देखो । - प्रकृतियां - ११ बंध योग्य १२० प्र० में से बायु ४, माहारकद्विक र नरकविक २ ये घटाकर ११२ प्र० का बंध जानता| को० नं० १-२-४-६-१३ में देखो । उदय मागंणाका श्रा भेद), औदारिकद्विक २, वैक्रियिकद्विक २, आहारकद्विक २, संस्थान ६, संहनन ६, उपघात १, परघात १, उच्छ्वास १, प्रातप १ उद्योग १, विहायोगति २, प्रत्येक १, साधारण १ स्वरद्विक २, महानिद्रा ३ (निद्रानिद्रा, प्रचभाप्रचला, स्थानगृद्धि ये ६) ये ३३ घटाकर ८६ प्र० का उदय जानना को १२-४-६-१३ देखो । - सत्त्व प्रकृतियां – १४८ को० नं० १-२-४-६-१३ देखी । संख्या-अनन्तानन्त जानना । क्षेत्र---लोक का असख्यातवां भाग, लोक के असंख्यात भाग, सर्वलोक, विशेष खुलासा को० नं० -२-४-६-१३ देखो । स्पर्शन ऊपर के क्षेत्र के समान जानना । काल-नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल जानना । एक जीव की अपेक्षा विग्रह गति में एक समय से तीन समय तक जानना प्रयोग केवली की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त जानना । अन्तर-नाना जीवों की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं एक जीव की धपेक्षा तीन समय कम क्षुद्रभव ग्रहण काल से ३१ सागर काल तक अनाहारक न बन सके। जाति (योनि) - ८४ लाख योनि जानना । फुल - १६६ । लाख कोटिकुल जानना । -
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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