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________________ २४ २५ सूचना- यहाँ ४था गुण स्थान हो होता है, न २२ दरे गुण स्थान नहीं होते। अवगाहना-प्रागभी भवनत्रिक प्रादि देवों के उत्कृष्ट अवगाहना २५ धनुष को जानना, इसके पागे सार्य सिद्धि तक के देदों में घरति-षटति भर्वार्थ सिद्धि के देवों में एक हाथ की अवगाहना जानना, मध्य के अनेक भेद होने हैं। बम प्रहतियां -१०४ (१) सामान्यतया देवगति में पर्याप्त अवस्था में १०४ प्रकृतियों का बंध जानना, बंष योग्य १२. प्रकृतियों में से नरकटिक २ नरकायु १. देवदिक २, देवासु १, क्रिएकद्धिक २, दोन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति ३, साधारण १, सूक्ष्म १, स्थावर १ पाहारहिक २.१६ प्रकृतियां घटाकर १०४ जानना । १०३, (२) अपर्याप्त अवस्था में ऊपर के १०४ में में मनुष्यगति १, तियंचायु १ ये २ घटाकर और तीर्थकर प्र०१ बढ़ाकर १०३ प्रकृतियों का बंध जानना। सूचना--अजीबी मनुष्यति मन्यादान पूर्वक केवली पायन केयलों के चरण मल में तीर्थंकर प्रकृति बंधने के योग्य परिणामों के विशुद्धता का प्रारम्भ कर दिया हो परन्तु विशुद्धता को अन्तिम क्षगण में वर्तमान प्रायु पूरी हो जाय तो देवगति म निवपर्याप्तक मथवा पर्याप्त अवस्था में तीर्घकर प्रकृति का बंध पर जाना है। ०२. (३) मामान्यतया अपर्याप्त अवस्था में ऊपर के १०४ में ने तिबंचामु १, मनुष्यायुये २ घटाकर १०१ प्र. जानना । १०३, (८) भवनत्रिक देव पीर सब प्रकार की देवियां के पर्याप्त अवस्था में ऊपर के १०४ में मे मीर्थकर प्र.१ घटाकर १०३ प्रका बंध जानना। १०१, (५) भवत्रिक देव और सब प्रकार को देविया के अपयाप्त अवस्था में ऊपर के १७३ में में तिर्यंचायु १, मन्तृप्यायु १ मे २ घटाकर १०१ प्र० का बंध जानना । १०४(5) सौधर्म ईदान्य वर्ग के देवों के पर्याप्त अवस्था में-१०४ प्रकृनियों का बंध होता है। १.२(७) सौधर्म ईशभ्य स्वर्ग के ददों के अपर्याप्त अवस्था में सामान्य शालाप के तरह १०२ १० जानना । १०१ (क) रे १२ स्वर्ग नक के देवों में पर्याप्त अवस्था में-उपर के १०४ में में केन्द्रिय जाति १, कारुप १ साधारण १मे ३ घटाकर १०१ प्र. का बंध जानना । १६, (6) ३२ से १२वे स्वर्ग तक के देवों के अपर्याप्त यवस्था में-जबर के १०१ प्र. में मे निर्यचायु १, मनुष्यायु १ये २ पटाकर १९ प्र० का बंध जानना । १०, (१०) १३वे स्वर्ग से १६वे स्वर्ग नक के देवों में और नव वेयक तक के पत्रों के पर्याप्त अवस्था में-ऊपर के १०१ मे से तिरंच हिक २, तिचायु १, चौत १८ पाकर प्र. का बन्द जानना । ६६, (११)१३वे स्वर्ग से १६ स्वर्ग तक के दबा में और नवग्न वेधक तक के बों के अपर्याप्त अवस्था में ऊपर के ६७ में में मनुष्पायु पटाकर प्रकार जानना ।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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