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________________ ( १५२ ) २४ अवगाहना-माय पर्याप्तक मंत्री पचेन्द्रिय जीव की जपन्य पवगाहना पानागुल के प्रमस्यान भाग प्रमाण जानना पौर उत्तम मोगभूमिया मनुष्य की उत्कृष्ट प्रवगाहना (६०००) छः हजार धनुष (३ कोम) जानना । २५ बब प्रकृतियां-१२० सामान्य मनुप्य की प्रपंक्षा १२० प्रकृति जानना। मूपना-१४ गुण स्थान की अपेक्षा विशेष खुलामा गो० २० गा. ६४ मे १०४ देखो। ११२ निवृत्य पर्याप्तक मनुष्य में मामु , नरकटिक २. पाहाद्विप२ ये ८ प्रकृतियों का बंध नही होता इसलिये ये ८ घटाकर ११२ प्रकृति जानना। १०६ नम्व्य पर्याप्तक मनुष्य में देवधिक २, नीर्थकर, प्रकनि:, ये ३ और ऊपर के ८ प्रति ऐसे ११ प्रकृतियां ऊपर के १२० में में घटाकर १०६ जानना। २६ उदय प्रकृतियां १०२ मामान्य से मनुष्यों की अपेक्षा उदय पोग्य १२२ प्रकृतियों में से नरकटिक २, नरकायु १, तियंचद्विक २, तियंचायु १, देवद्धिक २, देवायु १, त्रियकठिक २, एकेन्द्रियादि जाति ४. पातप १, उद्योत १, साधारण . मूक्ष्म १, स्थावर १, ये २० प्रकृतियां घटाकर १०२ बानना। १०० पर्याप्तक पुरुष मेदि. नरक में ऊपर के ली पात १ ये २ घटाकर जानना। ६६ पर्याप्त स्त्री में (योनिगति मनुष्य) ऊपर के १०० प्रकृतियों में से तीर्थकर प्र.१, पाहारक द्विक २, पुरुष वेद १, नपुंसक वेद १ये ५ षटाकर और स्त्रीवेद १ जोरकर १६ जानना तम्म्य पर्याप्तक मनुष्य में जानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ६ (महानिद्रा ३ घटाकर) वेदनीय २, मोहनीय २४ (स्त्री-पुरुष ये स० मिथ्यात्व १, म. अमिः १,२ वेद घटकर), मनुष्यगनि, नीच गोष १, अन्तराय ५, नाम कर्म २८, (मनुष्यगति , पंचेन्द्रिय जानि १, निर्माण १, प्रौदारिकर्तिक २, नजर कार्माग्म शरीर २, हुन्डक संस्थान १, प्रसंप्राप्तामृपाटिका संहनन १, स्पादि ४, मनृत्यगत्यानुपूर्वी १. प्रगुरुलऽ १, उपधान १, मापारम्प १, सूक्ष्म १. स्यावर १, अपर्याप्त , दुभंग १, स्थिर, अस्थिर १. शुभ १, अशुभ !, मनादेय , अपनः कोति १. ये २७) ये सब ७१ जानना (देखो गो० क० गा० ३०१) ७८ भोग भूमियां मनुष्य में ऊपर के १०२ प्रकृतियों में में दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेव १, अयमः कीर्ति १ नीच गोत्र १, नपुंसक वेद १ म्यानगृष्मादि महानिदा ३, प्रप्रशस्त विहायोगति १. तीर्षकर प्र. १, अपर्याप्त है, वचधूपम नाराच संहनन छोड़कर दोष ५ संहनन, समचतुरस्र संस्थान छोड़कर शेष ५ संस्थान, प्राहारकहिक २ २४ घटाकर ७८ जानना (देखो गो० क. गा० ३०१.३०३) २३ स्व प्रकृतिया--१४८ ने मिथ्यात्व चरण में सामान्य मनुष्य की अपेक्षा से १४८ प्र जानना । १४५ रे गुण में तीर्थकर प्र. १, माहारकद्विक २ ये : घटाकर १४५ जानना ।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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