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तो मैं भी वही मार्ग अपनाऊँगी। उसी पाणि-पात्री की शरण में जाऊँगी। ऐसा संकल्प करके मैंने एक बार पुनः पुकारा अपने नाथ को'यह लोहे की बेड़ी स्वामी की कृपा से कट जाएगी, परन्तु कर्मों की बेड़ी तुम्हारी कृपा के बिना नहीं कटेगी...महावीर ! अनेक जन्मों में भी नहीं कट पाएगी। मुझे तुम्हारी कृपा की कोर चाहिए...वर्द्धमान ! जानती हूँ महामुनि ! तुम मेरे उद्धार के लिए यहाँ नहीं आओगे, पर मैं तुम्हारी शरण में आऊँगी। आज नहीं तो कल, भव में नहीं तो भवान्तर में, अवश्य-अवश्य आऊँगी मैं। अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेकं शरणं मम,
त्वमेकं... ...शरणं... ...मम... फिर मैं विचारती रही
कुछ ऐसे भी तो अभागे होते हैं जिन्हें उदराग्नि शमन के लिए कोदों का भात और छाछ भी हर दिन कहाँ मिलता है। क्षुधा-ज्वाल में जलकर ही उनकी देह भस्म होती रहती है। उनसे तो अभी भी अच्छा है मेरा भाग्य।
बेला बीत रही थी अतः जैसे-तैसे दो-चार ग्रास पेट में डाले और छाछ पीकर मैंने अपनी क्षुधा-तृषा दोनों पीड़ाओं का उपचार कर लिया।
चन्दना :: 53