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तब वह सिंह का ग्रास बन जाती है, पर केश खोकर प्राण बचाना स्वीकार नहीं करती । मुझे तो ऐसा भी कोई अवसर नहीं मिला था ।
अभी स्वामिनी की निर्दयता का अन्त नहीं हुआ था, निर्दोष निरीह दासी के लिए कोपाविष्ट स्वामिनी का यह अन्तिम पुरस्कार नहीं था ।
गुहा जैसे रहस्यमय उस कक्ष में एक लौह-श्रृंखला जड़ी थी । उसी के छोर पर लगी बेड़ी मेरे पैर में पहनायी गयी । अब तक मैं दासी थी, अब 'बन्दिनी - बाँदी' बन गयी । इस प्रकार मेरी देह का आपादमस्तक शृंगार हो गया, फिर जाती हुई क्रुद्ध स्वामिनी के शब्द कानों में टकराये - " हवेली में बहुत राज कर लिया रानी जी !
अब अपने स्वामी के लौटने तक इस राजमहल में विश्राम करें ।"
दूसरे क्षण कपाट बन्द होने की कर्कश ध्वनि सुनाई दी, फिर निस्तब्धता छा गयी । कक्ष में अन्धकार घनीभूत हो गया ।
एक क्षण पहले तक जिसकी कल्पना नहीं थी,
दारुण दुख का वैसा आघात मुझ पर हुआ था । इस अप्रत्यसित आघात ने
मुझे सर्वाधिक वेदना पहुँचायी थी ।
मेरा अपहरण करनेवाले विद्याधर ने,
मुझे पाने का प्रयास करनेवाले
और दासी बनाकर बेचनेवाले भीलों ने, तथा
धनार्जन के लोभ में मेरी बोली लगाने वाली गणिकाओं ने,
कुल मिलाकर मुझे जो पीड़ा पहुँचायी थी,
उससे कई गुनी पीड़ा आज
स्वामिनी के क्रूर व्यवहार ने मुझे दी थी ।
उन तीनों ने भले ही मेरा सतीत्व नष्ट करने का प्रयास किया, किन्तु मुझ पर 'चरित्रहीना' का लांछन किसी ने नहीं लगाया था, मेरे शील को किसी ने शंका की दृष्टि से नहीं देखा था । आज स्वामिनी ने 'पतित और व्यभिचारिणी' मानकर मुझे यह दण्ड दिया है,
चन्दना :: 49