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शब्दावली स्वामी का हृदय तो वेधती ही होगी, मुझे भी उससे मर्मान्तक पीड़ा पहुँचती थी।
स्वामी सन्त स्वभाव के व्यक्ति थे। उनकी कोमलता के लिए नवनीत की उपमा फीकी सिद्ध होगी। नवनीत जब स्वयं तप्त होता है तभी पिघलता है, किन्त सेठ वृषभसेन का हृदय दूसरे के ताप से द्रवित हो रहा था। वे किसी को दुखी नहीं देख सकते थे। मौसी सदा उनकी दयावृत्ति का गुणगान करती रहती थी।
ऐसे महान व्यक्ति के चारित्र पर सन्देह, विधि की विडम्बना ही थी।
सन्तति का अभाव स्वामी को सदा दुखी किए रहता था। शायद यह उनके मन की उसी रिक्तता का फल था कि उन्होंने 'पुत्री' कहकर मेरा उद्धार किया। मुझसे वार्तालाप करते समय उनका पितृ-भाव दर्शनीय बनकर उनके मुख पर झलकने लगता था।
वे मुझ निराश्रिता को आश्रय देकर अपनी भावना साकार कर रहे थे और मैं उनकी सेवा-सुश्रूषा करके काल यापन करने का प्रयत्न कर रही थी।
स्वामिनी की शंकालु दृष्टि हमारे निष्पाप व्यवहार को किसी और ही रूप में देख रही थी। उनके मन की कालिमा जब-तब उनके वचनों में भी उजागर होने लगी। स्वामी की उपस्थिति में तो वे कुछ संयमित रहतीं, पर जब स्वामी सामने नहीं होते तब मेरे रूप को लेकर, या मुझ पर स्वामी के सहज स्नेह को लेकर, उनके व्यंग्यवाण चारों ओर सनसनाते रहते थे।
नामकर्म की शुभ प्रकृतियाँ भद्रा सेठानी के उदय में भी पर्याप्त दिखाई देती थीं। वैभवशालिनी होने के साथ वे एक छरहरे, सुन्दर और सानुपातिक शरीर की भी स्वामिनी थीं। परन्तु प्रकृति का यह वैचित्र्य यहाँ भी सत्य सिद्ध हो रहा था कि 'सबको सब-कुछ नहीं मिलता' । उनके स्वभाव में प्रेम और कोमलता नहीं थी। प्रकृति ने उसके स्थान पर वहाँ बैरभाव, कठोरता और कर्कशता भर दी थी। ___ यदि दैहिक सौन्दर्य शील-सौजन्य के संस्कारों से सुसज्जित न हो तो देवांगना भी 'विष-कन्या' बन जाती है। भद्रा सेठानी के स्वभाव में भद्रता का अभाव था। लालित्य और नारी-सुलभ कमनीयता का जैसा समन्वय उनकी गौरवर्ण देह में था, वैसा उनके बर्ताव में नहीं था। वहाँ शुभ्रता के स्थान पर कालुष्य था। कुपित होने पर वे हृदय-हीनता की पर्याय बन जाती थीं।
स्वामी अपनी जीवन संगिनी की इस कटुता को सहज भाव से सहन करते थे। वे कभी पत्नी से जोर से बोले हों, ऐसा मैंने नहीं सुना। उनका मौन स्वामिनी
44 :: चन्दना