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रथ एक भव्य भवन के सामने रुका। द्वारपाल ने बढ़कर द्वार खोला और हम भवन में आ गये। वह सारा परिदृश्य मेरे मन में तरह तरह की शंका-कुशंकाएँ उत्पन्न कर रहा था, पर गृहस्वामी के मुख से उच्चरित 'पुत्री' शब्द मुझे आश्वासन दे रहा था। मैं जानती थी कि उस शब्द का उच्चारण बुद्धि से नहीं, हृदय से हुआ था। उसकी सार्थकता पर शंका करने का मेरे पास कोई कारण नहीं था।
“यमुना कहाँ है ?"
गृहस्वामी के प्रश्न के उत्तर में एक वृद्धा कक्ष में आयी। उन्होंने मेरी ओर संकेत करके उससे कहा
“यमुना ! यह भी अब तुम्हारे साथ रहेगी। इसके भोजन विश्राम का तुम्हें ध्यान रखना है।"
यमुना ने सिर नवाकर स्वामी की आज्ञा के प्रति सम्मान जताया, फिर हौले से हाथ का सहारा देकर मुझे अपने साथ ले आयी। __ भवन के पिछवाड़े दासियों के आवास थे। छह दासियों में यमुना वरिष्ठ थी। सातवीं दासी के रूप में उन बाँदियों ने मेरा स्वागत किया। मैं सोचने लगी-वैशाली में सात बहनों में सबसे कनिष्ठ थी, मेरा वह कनिष्ठा पद आज भी सुरक्षित था। मेरे भाग्य में तीन ही दिनों में वैशाली की छोटी राजकुमारी को इस घर की छोटी दासी के पद पर बिठा दिया है। कर्मों की माया सचमुच विचित्र है। ____ जो कमा कर लायी हूँ वह तो भोगना ही पड़ेगा। ऋण मैंने लिया होगा तो अब चुकाना भी तो मुझे ही पड़ेगा न ! ___ "अपना नाम तो बताओ बेटी ! उठो, हाथ-मुँह धोकर कुछ खा लो। कोई चिन्ता मत करो। हमारे स्वामी बड़े दयालु हैं। इस घर की दासियों को भोजन-वस्त्र आदि का कोई कष्ट नहीं होता। काम का बोझ भी अधिक नहीं है।"
मैंने दृष्टि उठाकर ऊपर देखा। वही वृद्धा सामने खड़ी बोल रही थी। मैंने पहली बार यमुना को ध्यान से देखा। सफेद बालों के बीच उसका मुख
चन्दना::41