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और फिर वे दोनों एक-दूसरे पर बोली बढ़ाती गयीं। इस प्रकार मेरा दाम तीन सहस्र स्वर्ण मुद्राओं से भी ऊपर पहुँच गया। अब दूसरी महिला चुप हो गयी थी। वह अधिक मोल बढ़ाने का साहस नहीं कर पा रही थी।
समुदाय में से किसी ने भील को परामर्श दिया
“यह तो बहुत अधिक दाम मिल रहा है, हाट की सबसे बड़ी बोली लगी है तेरे 'माल' के लिए, अब तो दे देना चाहिए।"
भील कुछ भी बोल पाता इसके पूर्व, सबको चौंकाती एक गर्वीली बोली वहाँ गूंज उठी
"इस कन्या के लिए पाँच सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ, ...यहीं और इसी समय।"
"है...कोई और...बढ़ाने वाला ?" ___ एक साथ शतशः नेत्र उस बोली लगानेवाले की ओर उठे। मेरे दो नेत्र भी हठात् उनमें सम्मिलित हो गये। श्वेत अश्वों वाले सुन्दर रथ पर सवार वह एक भद्र पुरुष दिखाई देता था। उसके मुख पर सौजन्य और आभिजात्य के भाव झलकते थे। कानों के पीछे केशों की शुभ्रता उसकी वरिष्ठता का घोष कर रही थी। उसके नेत्रों में पवित्रता और सहानुभूति की झलक थी।
न जाने क्यों मुझे विश्वास हो गया कि वह इस हाट का व्यवसायी नहीं है। जिनके मध्य से बोल रहा है, वह उन सबसे पृथक कोई सहृदय और कुलीन व्यक्ति है। मुझे ऐसा लगा जैसे कोई देवदूत मेरा उद्धार करने के लिए उस विपत्ति काल में प्रकट हो गया है।
वे दोनों महिलाएँ कुछ अनर्गल प्रलाप करतीं वहाँ से चली गयीं।
स्वामी का संकेत पाकर सेवक ने सहस्र-सहस्र मुद्राओं की पाँच थैलियाँ रथ से निकाल कर विक्रेता को सौंप दीं। आशातीत मोल पाकर भील तो निहाल हो गये थे। उनकी प्रसन्नता छिपाये नहीं छिप रही थी। भद्र पुरुष का अभिवादन करके हाट से पलायन करने में उन्होंने एक क्षण का भी विलम्ब नहीं किया।
वे भद्र पुरुष रथ से उतरे और कुछ समीप आकर शालीनता के साथ, लगभग आदेश भरे स्वर में उन्होंने मुझे सम्बोधित किया
"आओ पुत्री ! मेरे साथ रथ पर बैठो।"
'पुत्री' सम्बोधन सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे सन्तप्त हृदय पर किसी ने अमृत-सिंचन कर दिया हो। उनके आदेश में स्वामित्व का अहंकार नहीं, ममता
चन्दना :: 39