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भीलनी अकेली लौटी। एक बार फिर उसने मुझे ढाढस दिया। उसका प्रस्ताव मुझे उचित लगा । और कुछ उपाय भी नहीं था। मैंने विवशता में सिर हिलाकर सहमति का संकेत दे दिया। मैं उसकी बातों पर और अपने भाग्य पर भरोसा करके, पार्श्वप्रभु का स्मरण करती, परवश उसके साथ चल दी । प्रायः दो घड़ी में हम अरण्य के बाहर आ गये। मार्ग में गौ वृषभ जैसे पशु और कहीं कहीं भीलों के पर्णावास भी दिखने लगे थे। यह ज्ञात नहीं हो सका कि हम किस जनपथ में वैशाली से कितनी दूर हैं ।
28 :: चन्दना