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उत्थान और पतन दोनों क्रियाओं का अनिवार्य योग होता है। ये दोनों एक मुद्रा के ही दो पहल हैं। जब ये भिन्न होकर भी अभिन्न ही हैं तब मनुष्य के मन में एक को लेकर हर्ष और दूसरे के लिए विषाद क्यों उत्पन्न होता है ?
माता ने कभी हमें सिखाया था 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तीनों के सामंजस्य का नाम ही द्रव्य है । द्रव्य की दो पर्यायों में एक साथ इन तीनों का बोध हो जाता है। हर सजन की अन्तिम परिणति विनाश है और हर विनाश किसी नये सूजन का सूत्रपात है। यही जगत की जीवन्तता का रहस्य है। यहाँ हर पदार्थ का अस्तित्व अपने ही अतीत के शव पर अवस्थित होता है।
उस दिन उस ढलती साँझ के मद्धिम प्रकाश में प्रकृति नटी का नख-शिख अवलोकन करके मैं नश्वर संसार की इस शाश्वत व्यवस्था को जैसी सूक्ष्मता से समझ सकी, उतने स्पष्ट रूप में पहले कभी नहीं जान पायी थी। उस घोर विपदा के बीच यह सब विचार कर मुझे कुछ सान्त्वना मिली। क्षण भर को मेरी असाता अनुभूति तिरोहित हो गयी। उस दिन यही मेरी सन्ध्या - सामायिक हुई।
विचार-चक्र से निकलते ही मुझे अपनी असहाय अवस्था का भान हुआ। अन्धकार गहन होने लगा था। अब उस भयंकर तमिस्रा में, हिंस्र पशुओं से व्याप्त उस निर्जन अटवी में, मैं एकाकिनी बैठी थी। भक्षक चारों ओर थे, रक्षक वहाँ कोई नहीं था। कहीं नहीं था। माता के कानों तक मेरी पुकार पहुँचनी नहीं थी, तब घोर निराशा के क्षणों में जीवन का उत्सर्ग करने की बात मेरे मन में आयी। मैंने जीवन में पहली बार मृत्यु को पुकारा
'ओ मृत्यु माता ! अपने अंक में सुलाकर अब तुम्हीं मेरी पीड़ा का उपचार कर सकती हो, तुम्हीं बचा सकती हो मुझे इस विपत्ति से।...'
कहते कहते चन्दना का गला भर आया। वे हिलक कर रो उठीं।
मृगावती ने हृदय से लगाकर अनुजा को आश्वस्त किया। स्वयं उनके नेत्रों से अविरल बहती अश्रुधार जब देह पर पड़ी तभी चन्दना को उसका भान हुआ। उन्होंने अपने आपको सँभालते हुए, साहस बटोर कर अपनी व्यथा-कथा को गति देने का पुनः प्रयास किया
दीदी ! उस क्षण मेरा मन दुर्बल हो गया था। क्षण भर के लिए मेरे मन में आया-'अब जीवन का कोई अर्थ नहीं रहा। इस असहाय अवस्था में आगे जाकर न जाने और क्या भोगना पड़े, अतः अपने हाथों इस पर्याय का पर्यवसान कर
20 :: चन्दना