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चन्दना
आज कौशाम्बी का राजमहल दुलहन की तरह सजा था। द्वारों पर सुन्दर फूल-पत्तियों के बन्दनवार झूल रहे थे। कँगूरों पर सजाए गए दीपों से पूरा महल नक्षत्रों की तरह जगमगा रहा था। वाद्य संगीत की मधुर लहरियाँ बिखर रही थीं। दानशाला में यथेच्छ दान का अनवरत वितरण चल रहा था।
सुन्दर वस्त्रालंकारों में सुसज्जित, प्रसन्नवदना महारानी मृगावती पर्यंक पर बैठीं अवश्य थीं पर उनके मन का आह्लाद जैसे पूरे कक्ष में नाच रहा था। सखी सहेलियों और परिचारिकाओं के उस प्रमुदित समुदाय में किस क्षण राजमहिषी कहाँ थीं और कहाँ नहीं थीं सो कहना कठिन था। धूपदान में से निकलते सुगन्धित धूम, धीमे स्वर में गूंजते वीणा-रव और देवी मृगावती की सुखानुभूति ने एकमेक होकर उस विशाल कक्ष के कोने-कोने को पूर दिया था।
सहसा भीतर से स्वर्गिक आभा-मण्डित एक युवा कन्या ने कक्ष में प्रवेश किया। दिव्य कांचन वर्ण, उन्नत ललाट और सानुपातिक, कमनीय कृश काया। उस सुन्दरी को देखकर लगा जैसे कोई देव-कन्या वहाँ आ गयी हो। किसी को समझते देर नहीं लगी कि इसी अनुपम अतिथि के स्वागत के लिए महारानी ने आज यह उत्सव किया था। इसी अतिरूपा के आगमन के सत्कार में आज पूरा राजमहल आलोकित हुआ था।
सादे स्वच्छ आवरण में सज्जित उस सुन्दरी की देह पर अलंकार प्रायः नहीं थे। उस देवी के प्रवेश के साथ ही वह कक्ष जैसे किसी अलौकिक आभा से दीप्त
चन्दना :: 13