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(४७) अब पूरी कर नींदड़ी, सुन जीया रे! चिरकाल तू सोया॥ माया मैली रातमें, केता काल विगोया। अब.॥ धर्म न भूल अयान रे! विषयोंवश वाला। सार सुधारस छोड़ के, पीवै जहर पियाला॥१॥ अब.॥ मानुष भवकी पैठमैं, जग विणजी आया। चतुर कमाई कर चले, मूढ़ौं मूल गुमाया॥२ ।। अब.॥ तिसना तज तप जिन किया, तिन बहु हित जोया। भोगमगन शठ ले रहे, लिन सरवस खोया॥३॥अब. ।। काम विथापीड़ित जिया, भोगहि भले जानें । खाज खुजावत अंगमें, रोगी सुख मानें ॥४॥ अब.॥ राग उरगनी जोरतें, जग डसिया भाई! सब जिय गाफिल हो रहे, मोह लहर चढ़ाई॥५॥ अब.॥ गुरु उपगारी गारुडी, दुख देख निवारें । हित उपदेश सुमंत्रसों, पढ़ि जहर उतारै ॥६॥अब.॥ गुरु माता गुरु ही पिता, गुरु सज्जन भाई। 'भूधर' या संसारमें, गुरु शरनसहाई॥७॥अब.॥
हे जीव ! अब तो तू इस नींद को (अज्ञान को) समाप्त कर, जिसमें चिरकाल से तू सोया ही चला आ रहा है। इन मायावी उलझनों, चिन्ता, सोच-विचार की रात में तूने अपना कितना समय खो दिया ! हे अज्ञानी ! विषयों को वश में करनेवाले धर्म को तू भूल मत । यह (धर्म) ही तो सारे अमृत रस का सार है, मूल है, आधार है और तू इसे छोड़कर जहर का प्याला पीता चला आ रहा है।
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भूधर भजन सौरभ