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( ४३ ) विनती
जै जगपूज परमगुरु नामी, पतित उधारन अंतरजामी। दास दुखी, तुम अति उपगारी, सुनिये प्रभु! अरदास हमारी ॥ १ ॥ यह भव घोर समुद्र महा है, भूधर भ्रम-जल-पूर रहा है। अंतर दुख दुःसह बहुतेरे, ते बड़वानल साहिब मेरे ॥ २ ॥ जनम जरा गर्दै मरन जहां है, ये ही प्रबल तरंग तहां है । आवत विपति नदीगन जामें, मोह महान मगर इक तामें ॥ ३ ॥ तिस मुख जीव पर्यो दुख पावैं, हे जिन! तुम बिन कौन छुड़ावै । अशरन - शरन अनुग्रह कीजे, यह दुख मेटि मुकति मुझ दीजे ॥ ४ ॥ दीरघ काल गयो विललावैं, अब ये सूल सहे नहिं जावैं । सुनियत यों जिनशासनमाहीं, पंचम काल परमपद नाहीं ॥ ५ ॥ कारन पांच मिलें जब सारे, तब शिव सेवक जाहिं तुम्हारे । तातैं यह विनती अब मेरी, स्वामी! शरण लई हम तेरी ॥ ६ ॥ प्रभु आगे चितचाह प्रकासौं, भव भव श्रावक - कुल अभिलासौं । भव भव जिन आगम अवगाहों, भव भव शक्ति शरण को चाहीं ॥ ७ ॥ भव भवमें सत संगति पाऊं, भव भव साधनके गुन गाऊं । परनिंदा मुख भूलि न भाखूं, मैत्रीभाव सबनसों राखूं ॥ ८ ॥ भव भव अनुभव आतमकेरा, होहु समाधिमरण नित मेरा । जबलौं जनम जगतमें लाधौं, काललबधि वल लहि शिव साध ॥ ९ ॥
तबलौं ये प्रापति मुझ हूजी, भक्ति प्रताप मनोरथ पूजौ । प्रभु सब समरथ हम यह लोरें, 'भूधर' अरज करत कर जोरें ॥ १० ॥
हे परमगुरु! आप जगत के द्वारा पूज्य हैं, आपका यश चारों ओर फैल रहा है। आप गिरे हुओं का, पतितों का उद्धार करनेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, घट-घट के
भूथर भजन सौरभ
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