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( ४२ ) विनती
अहो ! जगतगुरु एक, सुनियो अरज हमारी। तुम हो दीनदयाल, मैं दुखिया संसारी ॥ १ ॥ इस भव-वन में वादि, काल अनादि गमायो । भ्रमत चहूँगति माहिं, सुख नहिं दुख बहु पायो ॥ २ ॥ कर्म महारिपु जोर, एक नं कान करें जी । मनमान्यां दुख देहिं, काहूसों नाहिं डरैं जी ॥ ३ ॥ कबहूं इतर निगोद, कबहूं नर्क दिखावै । सुर नर पशुगतिमाहिं, बहुविधि नाच नचावै ॥ ४ ॥ प्रभु! इनके परसंग, भव भव माहिं बुरे जी । जे दुख देखे देव!, तुमसों नाहिं दुरे जी ॥ ५ ॥ एक जन्मकी बात कहि न सको सुनि स्वामी । तुम अनन्त परजाय, जानत अंतरजामी ॥ ६ ॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे । कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे ॥ ७ ॥ ज्ञान महानिधि लूटि, रंक निबल करि डार्यो । इनही तुम मुझमाहिं, हे जिन ! अंतर पार्यो ॥ ८ ॥
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पाप पुण्य की दोइ, पाँयनि बेरी डारी । तन काराग्रह माहिं, मोहि दियो दुःख भारी ॥ ९ ॥ इनको नेक विगार, मैं कछु नाहिं कियो जी । विन कारन जगवंद्य !, बहुविधि वैर लियो जी ॥ १० ॥ अब आयो तुम पास, सुनि जिन ! सुजस तिहारी । नीतिनिपुन जगराय !, कीजे न्याव हमारी ॥ ११ ॥
भूधर भजन सौरभ
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