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(३०) मेरे चारौं शरन सहाई॥टेक॥ जैसे जलधि परत वायसकौं, बोहिथ एक उपाई ।। मेरे.॥ प्रथम शरन अरहन्त चरनकी, सुरनर पूजत पाई। दुतिय शरन श्रीसिद्धनकेरी, लोक-तिलक-पुर राई॥१॥ मेरे. ।। तीजे सरन सर्व साधुनिकी, नगन दिगम्बर-काई। चौथे धर्म, अहिंसा रूपी, सुरग मुकति सुखदाई ॥२॥ मेरे.॥ दुरगति परत सुजन परिजनपै, जीव न राख्यो जाई। 'भूधर' सत्य भरोसो इनको, ये ही लेहिं बचाई॥३॥ मेरे.॥
(जगत में) ये चार ही मेरे सहायक हैं, उपकारी हैं, मुझे इनकी ही शरण है। जैसे समुद्र के मध्य उड़ते हुए पक्षी के लिए जहाज के अतिरिक्त कोई आश्रय नहीं होता, वैसे ही इस संसार-समुद्र में इन चारों के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई सहायक नहीं है जिनकी मैं शरण जा सकूँ । पहली शरण मुझे अरहंत के चरणों में है, जिनकी पूजा देव व मनुष्य करते हैं। दूसरी शरण मुझे सिद्ध प्रभु की है, जो लोक के उन्नत भाल पर अर्थात् लोकाग्र में तिलक के समान स्थित सिद्धशिला पर राजा को भौति आसीन हैं। तीसरी शरण मुझे उन सर्व साधुजनों की है, जो नग्न-दिगम्बररूप में सशोभित हैं। चौथी शरण मझे उस अहिंसा-धर्म की है जो स्वर्ग व मुक्ति के सुख का दाता है । दुर्गति/कष्ट आ पड़ने पर स्वजन- परिजन कोई भी जीव को नहीं रखता। उस समय ये चारों हो उसके लिए शरण होते हैं। भूधरदास कहते हैं कि सचमुच ऐसे क्षणों में मुझे इन्हों चारों का भरोसा है। ये ही मुझे इस भवसागर से बचाने में समर्थ हैं।
वायस = कौवा । बोहिथ (बोहित्थ) - जहाज । लोकतिलकपुर = सिद्धशिला।
भूधर भजन सौरभ