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राग प्रभाती अजित जिन विनती हमारी मान जी, तुम लागे मेरे प्रान जी। तुम त्रिभुवन में कलप तरुवर, आस भरो भगवानजी॥ वादि अनादि गयो भव भ्रमतै, भयो बहुत कुल कानजी। भाग संयोग मिले अब दीजे, मनवांछित वरदान जी॥१॥ ना हम मांगें हाथी-घोड़ा, ना कछु संपति आनजी। 'भूधर' के उर बसो जगत-गुरु, जबलौं पद निरवान जी॥२॥
हे अजितनाथ भगवान! हमारी विनती स्वीकार करो । मेरे प्राण ! मेरा जीवन तुम्हारे साथ लग गया, तुम्हारी शरण में आ गया है । आप तीन लोक में कल्पवृक्ष हैं अत: हे भगवान ! मेरी भी आशा पूरी करो। अनादिकाल से ही मैं भव-भव में वथा भ्रमण कर रहा हूँ। अनेक भवों की मन्यांदा में सीमित रहा है। अब भाव भी हुए हैं और संयोग भी मिला है, मुझे अब मनवांछित वर प्रदान करो।
हम आपसे हाथी-घोड़े की माँग नहीं करते और न कोई अन्य प्रकार की संपत्ति ही चाहते हैं। भूधरदास कहते हैं कि आप हमारे हृदय में तब तक रहो, जब तक हमें मुक्ति की, निर्वाण की प्राप्ति न हो।
बादि = व्यर्थ । कुलकान = कुल की मर्यादा।
भूधर भजन सौरभ