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________________ राग ख्याल मन मूरख पंथी, उस मारग मति जाय रे ॥टेक।। कामिनि तन कांतार जहां है, कुच परवत दुखदाय रे।। काम किरात बसै तिह थानक, सरवस लेत छिनाय रे। खाय खता कीचक से बैठे, अरु रावनसे राय रे॥१॥ मन॥ और अनेक लुटे इस पैंडे, वरनैं कौन बढ़ाय रे। वरजत हों वरज्यौ रह भाई, जानि दगा मति खाय रे॥२॥ मन ।। सुगुरु दयाल दया करि 'भूधर', सीख कहत समझाय रे। आगै जो भावै करि सोई, दीनी बात जताय रे ॥३ ।। मन॥ ओ मन! ओ कुमार्ग पर चलनेवाले मूर्ख, तू कामवासना के पथ पर मत जा। नारी-शरीररूपी जंगल में नारी-शरीर का सौन्दर्य (स्तन) पर्वत के समान महान दुःखदायी है ! अर्थात् शारीरिक सौन्दर्यरूपी जंगल में पर्वतरूपी अनेक कष्ट हैं। कामरूपी किरात (भील) राक्षस जिसके हृदय में बसता है, वह उसका सर्वस्व छीन लेता है। कीचक और रावण राजा होते हुए भी ऐसी गलती कर बैठे और फिर उसका दुखद परिणाम भुगते और भी अनेक जन इस वन में कैसे अपना सर्वस्व लुटा बैठे उसका वर्णन कौन करे? तू उससे बच रहा है अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा है तो बचा हुआ ही रह, जान-बूझकर तू धोखा मत खाना। भूधरदास कहते हैं कि दयालु सुगुरु दया करके यह सीख दे रहे हैं, समझा रहे हैं। आगे तेरी समझ में आवे जो कर, तुझे जो बात बतानी थी वह बता दी है कि तू उस पथ पर मत जा। कांतार - बन, बियावान जंगल। खता - गलती। पैंडे - इस कारण। ९२ भधर भजन सौरभ
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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