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सहभूता गुणा ज्ञेयाः सुवर्णे पीतता यथा।
क्रमभूतास्तु पर्यायाः जीवे गत्यादयो यथा ॥३७४॥ सुवर्ण में जिस प्रकार पीलापन होता है, उसी प्रकार सहभूत गुण जानना चाहिए। जीव में गति आदि के समान क्रमभूत पर्यायें हैं।
पर्यायाः प्रभवन्त्येते भेदद्वयसमाश्रिताः । अर्थव्यञ्जनभेदाभ्यां वदन्तीति महर्षयः ॥३७५॥
अर्थ और व्यञ्जन रुप दो भेदों का आश्रय कर ये पर्यायें समर्थ होती हैं, ऐसा महर्षि कहते हैं।
सूक्ष्मोऽवाग्गोचरो वेद्यः केवलज्ञानिना स्वयम् ।
प्रतिक्षगं विनाशी स्यात पर्यायो ह्यर्थसंज्ञिकः ॥३७६॥
जो सूक्ष्म है, वाणी के गोचर नहीं है, केवलज्ञानियों के स्वयं अनुभव में आती है तथा प्रतिक्षण विनाशी होती है, उस पर्याय की अर्थ संज्ञा है।
स्थलः कालान्तरस्थायी सामान्यज्ञानगोचरः।
दृष्टिग्राह्यस्तु पर्यायो भवेद्य वजन संज्ञकः ॥३७॥
जो स्थूल है, दूसरे समय तक रहने वाली है, सामान्य ज्ञान के गोचर हैं, दृष्टि ग्राह य है, वह व्यञ्जन नाम की पर्याय है।
द्रव्याण्यनाद्यनन्तानि द्रव्यत्वेन भवन्त्यपि । ध्रौव्यव्ययसमुत्पत्तिस्वभाधान्यखिलान्यपि ॥३७८॥