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सदवाशुद्धता योनौ गलन्मलाश्रयत्वतः ।
रजः स्खलनमेतासां मासं प्रति प्रजायते ॥ २४४ ॥
गिरते हुए मल के आश्रय से ( इन स्त्रियों की ) योनी में सदैव अशुद्धता होती है । इनके प्रतिमास रजः स्खलन होता रहता है ।
उत्पद्यन्ते सदा स्त्रीणां यौनो कक्षादिसन्धिषु । सूक्ष्मपर्याप्तका मत्यस्तद्द हस्य स्वभावतः ॥ २४५॥
स्त्रियों की योनि, काँख आदि की सन्धि में सदा सूक्ष्म अपर्याप्त मनुष्य उस देह के स्वभाव के कारण उत्पन्न होते रहते हैं ।
स्वभावः कुत्सितस्तासां लिंग चात्यन्तकुत्सितम् । तस्मान्न प्राप्यते साक्षाद्द्द्वे द्या संयमभावना ॥ २४६॥
उन स्त्रियों का स्वभाव कुत्सित होता है और स्त्रीलिंग अत्यन्त कुत्सित होता है । अतः साक्षात् दो प्रकार की संयम भावना प्राप्त नहीं होती है ।
उत्कृष्ट संयमं मुक्त्वा शुक्लध्याने न योग्यता ।
नो मुक्तिस्तद्विना तस्मात्तासां मोक्षोऽतिदूरगः ॥२४७॥
उत्कृष्ट संयम को छोड़कर शुक्लध्यान की योग्यता नहीं है । शुक्लध्यान के बिना मोक्ष नहीं होता है । अतः उनका मोक्ष अत्यन्त दूर है ।
सप्तपं नरकं गन्तु शक्तिर्यासां न विद्यते । श्राद्यसंहननाभावान्मुक्तिस्तासां कुतस्तनी ॥ २४८॥
१ २४७ तमश्लोकस्योत्तरार्द्ध' २४८ तम श्लोकस्य पूर्वार्द्ध ख पुस्तकाद्गतं ।