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तस्याङ गे देवताः सर्वे तिष्ठन्ति सागरा नगाः ।
कथं गौर्यज्ञ वेलायां वध्यते सा द्विजाधमैः ॥८६॥
उसके अङ्ग में यदि समस्त देव, समुद्र और पर्वत विद्यमान हैं तो उसका यज्ञ के समय अधम ब्राह्मणों द्वारा वध क्यों किया जाता है ?
यथा गौः प्रभवेन्द्वन्धा तथते शुकरादयः ।
तयोः सादृश्यसद्भाने विण्मूत्राहारसेवनात् ॥१०॥ जिस प्रकार गौ वन्दनीय है, उसी प्रकार शूकरादि भी वन्दनीय होने चाहिए, क्योंकि विष्ठा, मूत्रादि के आहार का सेवन करने से उन दोनों में सादृश्य है।
एतत्स्ववाग्विरुद्ध यन्मन्यते जडबुद्धयः ।
पायात्यां दुर्गतौ जन्म प्रपद्यन्ते सुनिश्चितम् ॥१॥ इस प्रकार जड़ बुद्धि अपनी ही वाणी के विरुद्ध मानते हैं । यह सुनिश्चित है कि वे आगे दुर्गति में जन्म लेंगे।
न वन्द्या गौर्भवेद्वन्द्या गौर्वाणीत्यभिधानतः ।।
जैनेन्द्री विमला तथ्या भव्यानां मुक्तिदायिनी ॥२॥ गाय वन्दनीय नहीं है, बल्कि वाणी का पर्यायवाची शब्द गौ है । जिनेन्द्र भगवान् की विमल, तथ्यपूर्ण, भव्यों को मुक्ति देने वाली वह वाणी रूपी गौ वन्दनीय है। इति गोयोनि वंदना दूषणम् ।
विरंचिजगतः कर्ता संहर्ता गिरिजापतिः।
रक्षकः पुण्डरीकाक्ष इत्यूचः श्रु तवेदिनः ॥६३॥ १ तदङ्ग ख.। २ गौरत्र भवेद ख.। ३ काख्यः ख.। ४ इत्युक्तं ख. ।
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