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पूर्व जन्म में किए गए पाप के परिणामवश नारकी जीव एक दूसरे प्रेरित शारीरिक और मानसिक दुःख सहते हैं ।
लेश्यास्तिस्रोऽ शुभास्तेषां संस्थानं हुडसंज्ञकम् । प्रतिक्लिष्टाः परीणामा लिंगं नपुंसकाह्रयम् ॥ ८०॥
उनके तीन अशुभलेश्यायें ( कृष्ण, नील और कपोत ) होती है, हुडक संस्थान होता है, प्रतिक्लिष्ट परिणाम होते हैं और नपुंसक लिंग होता है ।
क्षारोष्णतो व्रसद्भावनदी वैतरणी जलात् । दुर्गन्धमृन्मयाहाराद् भुञ्जन्ते दुःखमद्भुतम् ॥८१॥
वैतरणी नदी के खारे, गर्म और तीव्र जल तथा दुर्गन्धित मिट्टी के आहार से वे अद्भुत दुःख अनुभव करते हैं ।
प्रक्ष्णो निमीलनं यावन्नास्ति सौख्यं च तावता । नरके पच्यमानानां नारकाणामहनिशम् ॥८२॥
नरक में पड़े हुए नारकियों को दिन-रात में पलक के झपकने मात्र भी सुख नहीं है ।
तस्मान्निर्गत्य कष्टेन पशुतां यान्ति ते जनाः । तत्र दुःखमसहयं च जननी
गर्भ गह दरे ॥ ८३ ॥
वहाँ से कष्टपूर्वक निकलकर वे होते हैं और वहाँ पर माता के गर्भ रूपी उठाते हैं ।
लोग पशुता को प्राप्त गड्डों में असहय दुःख
गर्भाद्विनिसृतानां स्यात् कियत्कालावशेषतः । यज्ञादौ विहितं कर्म तत्तथैवोपतिष्ठति ॥८४॥