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प्राणिप्राणात्येय शक्ताः प्रशक्ता मांसभक्षणे ।
क्रिया कौतस्कुती तेषां प्राप्तय स्वर्गमोक्षयोः ॥६४॥
जो प्राणियों के प्राणों का वियोग करने में समर्थ है और मांस भक्षण में अत्यधिक समर्थ हैं, उनमें स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करने हेतु क्रिया कहाँ से हो सकती है ? उक्त च पुराणेपुराण में भी कहा है
तिलसर्षपमात्रं तु मासं भक्षन्ति ये द्विजाः। नरकान्न निवर्तन्ते यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥१॥ प्राकाश गामिनो विप्राः पतिता मांसमक्षणात् । विप्राणां पतनं हाट्वा तस्मान्मां संन भक्षयेत् ॥२॥
जो द्विज तिल और सरसों के बराबर भी मांस का भक्षण करते हैं, वे जब तक सूर्य और चन्द्रमा हैं, तब तक नरक से नहीं लौटते हैं । मांस भक्षण से आकाशगामी विप्र भी पतित हो गए, अतः विप्रों के पतन को देखकर मांस भक्षण नहीं करना चाहिये।
कश्चिदोहति यत्सर्व धान्यपुष्प फलादिकं ।
मांसात्मकं न तत्किंस्याज्जीवाङगत्व प्रसड्गतः ॥६५॥ कुछ लोग कहते हैं कि धान्य, पुष्प, फलादिक चूंकि प्राणी के अङ्ग हैं, अतः वे मांसात्मक क्यों नहीं होंगे ? . नैवं स्यान्मांसमंग्यङग जीवाड्गस्यान्न वाभिषम् ।
यथा निम्बो भवेवृक्षो वृक्षो निम्बो भवेन्न वा ॥६६॥ ऐसा मानने पर प्राणी के अङ्ग मांस हो जायेंगे, किन्तु प्राणी के अङ्ग मांस हैं भी और नहीं भी है, जिस प्रकार नीम
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च ख.।