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ध्यानस्य फलमीदृक्षं सम्यग्ज्ञात्वा मुमुक्षुभिः । ध्यानाभ्यासस्ततः श्रेयान् यस्मानमुक्ति प्रगम्यते ॥७७८ ॥
ध्यान के ऐसे फल को भली प्रकार जानकर मुमुक्षुत्रों को ध्यान का अभ्यास श्रेयस्कर है, जिससे कि मोक्ष में चला जाता है ।
भूयादभव्यजनस्य विश्वमहतिः श्रीमूलसंघः श्रिये । यत्राभूद्विनयेन्दुरद्भुत गुणः सच्छील दुग्धार्णवः ॥
तच्छिष्योऽजनि भद्रमूर्तिर मलस्त्रैलोक्य कीर्तिः शशी । कान्महातमः प्रमथितं स्याद्वादविद्याकरैः ॥७७६॥
विश्व में प्रतिष्ठा प्राप्त श्री मूलसंघ भव्यजनों को कल्याणकारी हो, जिसमें अद्भूत गुणों वाले, उत्तम शील रूपी दुग्ध समुद्र वाले विनयचन्द्र हुए । उनके शिष्य तीनों लोकों में निर्मलकीर्ति वाले, चन्द्रमास्वरुप, भद्रमूर्ति उत्पन्न हुए, जिन्होंने स्याद्वादविद्यारूपी किरणों से एकान्तरुपी महान अन्धकार को
नष्ट कर डाला ।
दृष्टिस्वस्त टिनीमहीधरपतिर्ज्ञानाब्धिचन्द्रोदयो । वृत्तीकलिकेलिहेमन लिनं शान्तिक्षमामन्दिरम् ॥
कामं स्वात्मरसप्रसन्नहृदयः संगक्षपाभास्कर । स्तच्छिष्यः क्षितिमण्डले विजयते लक्ष्मीन्दुनामामुनिः ॥ ७८० ॥
जो दृष्टि रुपी आकाशगंगा के लिए हिमालय थे, ज्ञानरूपी सागर के लिए चन्द्रोदय थे, चारित्र रुपी लक्ष्मी की कलियुगसम्बन्धी क्रीड़ा के लिए जो स्वर्णकमल थे, शान्ति के लिए क्षमा के मन्दिर थे, भली प्रकार जिनका हृदय निजात्मरस से