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प्रतिसूक्ष्मशरीरस्य ह्य पान्त्यसमयावधेः । कायकार्यस्य सूक्ष्मस्य स्वशक्तिविगतात्मनः ॥७५७॥
श्रत्यन्तस्वल्प कालेन भाविप्रक्षयसंस्थि' तेः । afa चित्रसामर्थ्यात्तस्मादयोगिता मता ॥ ७५८ ॥
स्वशक्ति से रहित अत्यन्त सूक्ष्म शरीर की उपान्त्य समयावधिरुप सूक्ष्मकाय कार्य की अत्यन्त स्वल्पकाल से भाविक्षय रुप स्थिति होने से अकिंचित्कर सामर्थ्य के कारण प्रयोगिता मानी गई है ।
तच्छरीराश्रयाद्वयानमस्तीति न विरुद्धयते । निजशुद्धात्मचिद्रूप निर्भरानन्द शालिनः ॥७५६॥
निजशुद्धात्मचिपनिर्भरानन्दशाली के तत् शरीर के आश्रय से ध्यान होता है, यह बात विरोधी नहीं है ।
श्रात्मानमत्यानात्मैवं ध्याता ध्यायति तत्वतः । उपचारस्तदान्यो हि व्यवहारनयाश्रयः ॥ ७६०॥
तात्त्विक रूप से आत्मा को आत्मा के द्वारा ग्रात्मरुप ध्याता ही ध्याता है । अन्य का उपचार व्यवहारनय के प्राश्रय से किया जाता है ।
उपान्त्तसमये तत्र तच्छुद्धात्मप्रचिन्तनात् । द्वासप्ततिविलीयन्ते कर्माण्येताव्ययोगिनः ॥७६१॥
बहाँ उपान्त समय में उस शुद्धात्मा के उत्कृष्ट चिन्तन से से योगी के ७२ कर्म प्रकृत्तियों का विलय हो जाता है । १ संस्थितं । २ द ख ।