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१५३ मुख्यत्वेनेह साधूनां भावो हि क्षायिको मतः।
सम्यक्त्वं क्षायिकं शुद्ध दृष्टिमोहारिसंक्षयात् ॥६६१॥ इस श्रेणी में मुख्य रूप से साधुओं का क्षायिक भाव माना गया है। दर्शनमोह का क्षय हो जाने से शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व होता है।
तन्नापूर्वगुणस्थाने शुक्लसद्धयानमादिमम् ।
ध्यातुप्रक्रमते साधुराद्यसंहननान्वितः.॥६६२॥ अपूर्व गुणस्थान में प्रादि संहनन से युक्त साधु आदि शुक्लध्यान का उपक्रम करता है ।
ध्यानस्य विघ्नकारीणि त्यक्त्वा स्थानान्यशेषतः।
विशुद्धानि मनोज्ञानि ध्यानसिद्धयर्थमाश्रयेत् ॥६६३॥
ध्यान में विध्न करने वाले स्थानों को सम्पूर्ण रूप से त्यागकर ध्यान की सिद्धि के लिए विशुद्ध मनोज्ञ स्थानों का आश्रय लेना चाहिये।
निष्प्रकम्पं विधायाथ दृढ़ पर्यंकमासनम् । . नासाग्रे दत्तसन्नेत्र किचिन्निमीलितेक्षणः ॥६६४॥ विकल्पवागराजालाह रोत्सारितमानसः।
संसारच्छेदनोत्साहः स योगी ध्यातुमर्हति ॥६६५॥ विकल्प की रस्सी से मन दूर निकालकर संसार का उच्छेदन करने का उत्साही वह योगी ध्यान करने के योग्य होता है।
अपान द्वारमार्गेण निःसरतं यथेच्छया । निरुद्धयोर्ध्वप्रचाराप्तिं प्रापयत्यनिलं मुनिः ॥६६६॥
१ यह. ख.।