________________
उदय-द्रव्यादि के निमित्त के वश से कर्मों के फल की प्राप्ति का नाम उदय है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से विपच्यमान कर्मों के फल देने को उदय कहते हैं।
परिणाम-द्रव्यात्मक लाभ मात्र हेतु परिणाम है । जिस भाव के द्रव्यात्म लाभ मात्र ही हेतु होता है, अन्य किसी भी कर्म के उपशम आदि की अपेक्षा नहीं है, वह परिणाम कहलाता है ।
प्रयोजन होने से वृत्ति "इकण' प्रत्यय से शब्द बनते हैं जैसे-उपशम जिसका जिसका प्रयोजन है, वह औपशमिक भाव । कर्मों का क्षय जिसमें प्रयोजनभूत है वह क्षायिक भाव । क्षय एवं उपशम होने से क्षायोपशमिक । इसी प्रकार औदयिक और पारिणामिक हैं।
भावसंग्रह में इन्हीं भावों का वर्णन है । किस गुणस्थान में कैसे कैसे भाव होते हैं, यह बतलाया गया है।
मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, असंयत, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मलोभ, उपशान्त कषाय, क्षीणमोह, सयोगकेवलि और अयोगकेवलि ये चौदह गुणस्थान होते हैं । इन चौदह गुणस्थानों को छोड़कर लोकोत्तम सिद्ध होते हैं।
मिथ्यात्व कर्म के उदय से इस जीव के औदयिक भाव प्रकट होते हैं तथा मिथ्यात्व कर्म के उदय होने से प्रकट हुए प्रौदयिक भावों से इस जीव के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है।
सामान्यतया जैन ग्रन्थों में मिथ्यात्व के पाँच भेद किए गए हैं-१. विपरीत, २. एकान्त, ३. विनय, ४. संशय ओर ५. अज्ञान । वामदेव ने मिथ्यात्व की संसार में पाँच प्रकार से विद्यमानता बतलायी है -१. वेदान्त, २. क्षणिकत्व, ३. शून्यत्व, ४. वैनयिक और ५. अज्ञान ।। १. तत्वार्थवार्तिक २/१ २. वामदेव : भावसंग्रह २१-२३ ३. वही-२४ ४. देवसेनाचार्य: भावसं ग्रह-१२