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पाँच सौ पचास योजन समुद्र के तट को छोड़कर भीतर स्थित आठ दिशाओं में कुभोगभूमियां हैं।
सिंहाश्च महिषोलक व्याप्रशूकर गोमुखाः।
कपिवक्त्रा भवन्त्यष्टौ दिशानामन्तरे स्थिताः ॥५८२॥
आठों अन्तराल द्वीपों में सिंह, भैंसा, उल्लू, व्याघ्र, शूकर. घडियाल (नक्र) और बन्दर के समान मुख वाले मनुष्य हैं ।
वेधायाः षटछती त्यक्त्वा द्वौ द्वावुभयोदिशोः ।
हिमाद्रि विजयार्धाद्रितारादिशिखर्यद्विष ॥५८३॥ __ छ सौ धनुष छोड़कर दो-दो दिशा के दोनों उभय भागों में हिम पर्वत, विजयाद्ध पर्वत, तारा पर्वत और शिखरी पर्वतों में तथा
हिमवद्विजर्याधस्य पूर्वापरविभागयोः।
मत्स्यकालमुखा मेघविद्य न्मुखाश्च मानवाः ॥५८४॥ हिमवान् और विजयाद्ध पर्वत के पूर्वापर विभाग में मत्स्य, काल, मेघ और विद्युत् के समान मुख वाले मनुष्य हैं।
विजार्धशिखर्यद्विपार्श्वयोरुभयोरपि। हस्त्यादर्शमुखामेघमण्डलाननसनिमाः ॥५८५॥ चविंशतिसंख्याका भवन्ति मिलिता इमाः।
तावन्त्यो धातकीखण्डनिकटे लवणार्णवे ॥५८६॥
ये सब मिलकर २४ होते हैं। इतने ही धातकी खण्ड के निकट लवण सागर में हैं।
एवं स्युयू नपंचाशल्लवणाधितटद्वयोः । कालोदजलधौ तद्वद्द्वीपाः षण्णवतिः स्मृताः ॥५८७॥