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भावनादित्रिषु स्त्रीषु षट्स्वधःश्वभ्रभूमिषु ।
अवस्थायामपूर्णायां न हि सम्यक्त्व संभवः ॥४२७॥
भवनवासी, ज्योतिषी और व्यन्तर देवों में, स्त्रियों में, नीचे के छह नरक की पृथिवियों में तथा अपर्याप्तक अवस्था में सम्यक्त्वी उत्पन्न नहीं होता है ।
यस्य सम्यक्त्वसम्भूतिरायुर्वन्धेल्थ दुर्गतौ।
गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाप्यल्पतरा स्थितिः ॥४२८॥ दुर्गति में आयु बंधने के अनन्तर जिसके सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है, उसके गति का विनाश नहीं होता है, फिर भी स्थिति अल्पतर हो जाती है।
आयुर्बन्धे चतुर्गत्यां यदि सम्यक्त्वसंभवः ।
देवायुर्बन्धनं मुक्त्वा नाप्येते णुमहाव्रते ॥४२६॥
देवायु के बन्धन को छोड़कर चारों गतियों में प्रायु का बन्ध होने पर यदि सम्यक्त्व की उत्पत्ति हुई हो तो ये अणुव्रत और महाव्रत नहीं होते हैं।
क्षयोपशमसदृष्टिः पदं प्राप्नोति दुर्लभम् ।
सुदैवं स्वर्गलोकेषु मानुषं कर्मभूमिषु ॥४३०॥ क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि स्वर्गलोक में उत्तम देव तथा कर्म भूमियों में दुर्लभ मनुष्य पद को पाता है ।
लब्ध्वा क्षायिकसम्यक्त्वमे कतृतीयतुर्यके। भवे मुक्ति प्रयात्यङ्गी नास्त्यतोऽन्यभवाश्रयः ॥४३१॥