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भरतेश वैभव .
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सामने तुम अपने चातुर्यको क्यों दिखाती है ? फिर भी तुम्हारी समझ. में नहीं आया।
पतिदेवके आने का समाचार सुनकर व मेरी तयारी देखकर तुम बैठकर तोतेको कुछ सिखाने ही लगी थी। मैंने पूछा बहिन ! क्या कर रही हो? ऐसे कार्य मत करो।
तुमने उत्तर दिया बहिन ! आज भावाजी अपने घर भोजन करनेके लिये आनेवाले हैं। जब आकर इस महलमें प्रवेश करेंगे, तब इस तोतेसे कुछ सरस व्यवहार कराऊँगी ।
__ मैंने उत्तर दिया बहिन ! तुम पतिदेवके साथ अपनी बुद्धिमत्ताको बतलानेका प्रयत्न मत करो। वे तो कोरे आकाशमें रूप लिखने तककी सामर्थ्य रखते हैं, इसलिए इस कार्यमें व्यर्थ प्रयास मत करो ऐसा कहनेपर भी तुमने माना नहीं। मैंने फिर भी बहुत विरोध किया, फिर भी तुम सिम्बाती मई। तोतेको मुझे देनेके लिये कहा, परन्तु तुम उसे भी लेकर उठी, फिर सखियोंसे इसे पकड़नेको कहा तो तुम उन लोगोंके भी हाथ न आकर शीघ्र ही बगीचेकी तरफ भाग गई। इसके साथ खेलने के लिए यह समय नहीं है, ऐसा विचार कर मैं अपने गृहकार्यमें लगी रही, तुम बगीचेमें जाकर सब कुछ सिखाकर हंसती-हँसती आई।
देव ! मैंने इन वचनोंको कभी नहीं सुना। आज ही इस तोतेके मुखसे ऐसे वचनको सुन रही हूँ। यह बात आपसे शपथपूर्वक मैं कहती हूँ। इसकी वृत्ति को देखकर इसे अब कन्या कहें या कुटिलकामिनी कहें ? समझमें नहीं आता। इस प्रकार कुसुमाजी अपनी बहिनके संबंधमें भरतेश्वरसे कहने लगी। ___मकरंदाजी--बहिन ! मैंने तुम्हारे व तुम्हारे राज्जाके साथ क्या कुटिलता की, जरा बतला सकती हो, 'देवी जरा तोतेको इधर लावो' यह कहकर मुझे पासमें बुलाकर जोरसे पकड़ रखनेवाले तुम्हारे राजा ही कुटिल हैं।
कुम्माजी कहने लगी धूर्ता ! अपनी मुंहको ज्यादा मत चलाओ ! मुंह बंद करो, तुमसे प्रसन्न होकर राजाने तुम्हारा सन्मान किया। तब उसे तुम उनकी कुटिलता कह रही हो।
बहिन कुसुमाजी यह सन्मान तुम्हारे लिए मुबारक रहे। मुझे आवश्यकता नहीं । क्या मैं इनकी रानी हूँ जो इन्होंने इतने जोरसे पकड़कर आलिंगन दिया। यह कुटिलता नहीं तो और क्या है ? मैं