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भरतेस वैभव
तुम बोलने में चतुर हो, चलनेमें चतुर हो, व्यक्त होने में व अदृश्य होनेमें चतुर हो, इसलिये सुचतुर लोक में सबसे अधिक तुम विवेकी हो । इसलिये हे विवेकियों के स्वामी ! तुम सदा मुझपर कृपाकर मेरे हृदयमें रहो जिससे कि मैं भी तुम्हारे समान ही लौकिक पारमार्थिक मार्ग में कुशल बन जाऊँ ।
इसीका यह फल है ।
इति शुकसल्लाप संधि
अथ उपाहारसंधि
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उस काव्य की रचनासे सम्राट् भरत अपने हृदय में आनंदित हुए साथ ही प्रकटमें बोले कि इसमें कुछ विचारणीय विषय है । यह सुमना जी रानीकी कविता नहीं है । यह अमराजीकी ही रचना है। इसको सुनकर दोनों रानियाँ एक दूसरे के मुखको देखती हुई हँसने लगी । सुमनाजी कहने लगी बहिन ! मैंने उसी समय कहा था कि यह भार मेरे ऊपर नहीं लादना । किंतु मैंने देख लिया कि अब रहस्य प्रगट हो गया है ।
नाथ ! आप जो कुछ कह रहे हैं वह बिलकुल ठीक है । बहिनने मुझसे इस काव्य की रचना के लिए कहा था । परन्तु मैंने कहा कि इसकी कविता करना कठिन काम है । इसलिये मुझसे यह नहीं हो सकेगा, तब अमराजीने इसकी रचना की। मैंने केवल उसको लिखा है और कोई बात नहीं ।
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मैंने वहीं पर बनिसे कहा था कि इस बातको छिपाना नहीं । जिनने रचना की हो उसीके नामको पतिके समक्ष प्रकट करना | परन्तु बहिनने मेरी बात नहीं सुनी। मैं यह जानती थी कि हमारे पतिदेव के सामने कोई बातको छिपावें तो भी वह छिप नहीं सकती है। वे हर एककी मनोवृत्तिको जानते हैं। इसलिए बहिनसे व्यर्थं विवाद करनेसे क्या लाभ? ऐसा मनमें विचारकर में लिखती गई । परन्तु स्वामिन् ! लोकमें विवेकियों को कौन ठग सकता है ? इस बातकी सत्यता यहीं पर प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई । अब अच्छा हुआ जो मेरे ऊपर झूठा भार