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भरतेश वैभव
२४३ वह सुभद्रादेवो दुर्गति कैसे जा सकती है ? अवश्य बह स्वर्गको ही आयेगी । इसलिए सुभद्रादेवी ने भी बहुत वैभबके साथ दीक्षा ली।
भरत चक्रवर्तीको पालकीको होनेवाले जो सेवक हैं वे भी स्वर्ग जानेवाले हैं तो पट्टरानीको दुर्गति क्योंकर हो सकती है ? बह निर्मल शरीरवाली है, उसे आहार है, नीहार नहीं है। इसलिए उसे कमण्डलु नहीं हैं। अब वह अजिकाजाक बोध शोभित हो रही है । देवेन्द्र, अर्ककीर्ति, आदिराज आदि गंधकुटीमें भगवद्भक्ति में लीन हैं, और भगवान् भरतकेवली अपने कमलासनमें विराजमान हैं।
भरतेशको सामर्थ्य अचित्य है। षट्खण्डवैभवका लीलामात्रसे परित्याग करना, दीक्षित होना, दोक्षित होकर अन्तर्मुहूर्तमें मनःपर्ययशानकी प्राप्ति, पुनश्च केवलज्ञानकी प्राप्ति, यह सब उस आत्माकी महत्ताको साक्षात् सूचनायें हैं । कर्मपर्वतको क्षणार्ध में चूर कर देना सामान्य मनुष्योंको साध्य नहीं है। भरतेशके कुछ समयके ध्यानसे ही वे कर्म वेरी निकलकर भाग रहे हैं। वहीं दिग्विजयकर षट्सडको वशमें किया तो कर्मदिग्विजय कर नवखण्ड ( नवकेवललब्धि ) को प्राप्त किया। यह सामर्थ्य उनको अनेक भवों के अभ्याससे प्राप्त है। भरतेश सदा भावना करते हैं कि
हे परमात्मन् ! चिदम्बरपुरुष तृणको जलानेवाले अग्निके समान अष्टकर्मको क्षणभरमें भस्म करनेकी सामर्थ्य तुम्हारे अन्वर विद्यमान है। तुम गणनातीत हो, अमृतको निधि हो, इसलिए मेरे हृदयमें बने रहो।
हे सिद्धास्मन् ! आप चिन्तामणि हो! गुणरत्न हो, देव शिरोरत्न हो, त्रिभुवनरत्न हो, एवं रत्नत्रयरूप हो, अतएव हे सहमश्रृंगार निरंजनसिद्ध ! मुझे सम्मति प्रदान करो।
इसी मावनाका फल है कि मरतेशने कर्मपर्वतको क्षणार्धमें नष्ट करने की ध्यान-सामथ्र्य प्राप्त कर ली थी।
इति ध्यानसामर्थ्य संधिः