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भरतेश वैभव
२०३ जंजालको छोड़कर एकान्तवास करता हो । इसी प्रकार अन्य केलियोंकी गंधकुटी भी आकाशमें इधर उधर दिख रही थी। द्वादशगण आश्चर्यके साथ भगवंतकी ओर लेस तेथे ! रिमागिता सानाशिगे ऊपर भगवंत बद्धपल्य॑कासनसे. विराजमान है । सिद्ध के समान योगमें मग्न भगवंतको देखकर 'जिनसिद्ध' कहते हुए भरतेश्वरने नमस्कार किया। भगवंतके सामने दुःख उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए चक्रवर्तीको कोई दुःख नहीं हुआ | भगवंतको साष्टांग नमस्कार कर सार्वभौमने पूजासभारंभ को प्रारम्भ किया। एक दो दिन पूजा समारंभ चला तो आसपासके व्यंतर विद्याधर देव वगैरह सभी अनर्यसामग्रीको साथ लेकर आये । बड़ी भारी यात्रा भर गई।
विशेष क्या ? पूर्वसमुद्राधिपति मागधामरको लेकर हिमवंत तकके व्यंतरदेव व अन्य विद्याधर आकर भरतेश्वरकी पूजामें शामिल हुए। भरतेश्वरको वे पूजा सामग्री तैयार कर दे रहे थे। सम्राट् भी प्रसन्न हुए। नमि, विनमि, गंगादेव, सिंधुदेव, भानुराज व विमलराजने यह अपेक्षा की कि हम भी पूजा करेंगे । तब भरतेश्वरने सम्मति देकर अपने साथ ही उनको भी पूजामें शामिल कर लिया ।
शुचिके साथ चक्रवर्तीने अपने कोटाकोटिरूप बना लिए । पर्वतभर सर्वत्र भरतेश्वर दृष्टिगोचर हो रहे हैं। फिर व्यंतर, विद्याधर आदि जो सर्व पदार्थ दे रहे हैं उनसे वैभवसे पूजा कर रहे हैं उसका क्या वर्णन करें? घरा, गिरी व आकाशमें सर्वदेव खड़े होकर जयजयकार कर रहे हैं। साढ़ेतीन करोड़ वाद्य तो चक्रवर्तीके, भगवंतको सेवामें देवेन्द्रके द्वारा नियोजित साढ़ेबारह करोड़ वाद्य इस समय एकदम बजने लगे। उस संभ्रम का क्या वर्णन किया जा सकता है ? अंबरचरि गंधर्वकन्यायें, नागकन्यायें, आकाशमें नृत्य कर रही थीं । उस समय जम्बूद्वीपमें सबको आश्चर्य हो रहा था । उस पूजा समारंभका क्या वर्णन किया जा सकता है ? सबसे पहिले मंत्रोच्चारणपूर्वक सम्राट्ने जलधाराका समर्पण किया। तदनन्तर सुगंधयुक्त चन्दनको समर्पण किया। चंदन कोई छोटी मोटो कटोरीमें नहीं था । वह पर्वत (चंदनपर्वत ) बन गया अगणित रूपको धारण किये हुए भरतेश्वर अपने विशाल दोनों हाथोंसे चंदनको लेकर जब अर्चन कर रहे थे वह पर्वतसे जमीनमें भी उतर कर गया, वहाँ देखो वहाँ सुगन्ध हो सुगन्ध है। जब कि अमणित देवगण जयजयकार कर रहे थे तब भरतरखर अपने विशाल हासेि उत्तम अक्षताओंको अर्पण कर रहे