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भरतेश वैभव देखनेका यत्ल करो! वही तुम्हें मुक्तिकी ओर ले जायगा। अनेक शास्त्रोंका अध्ययन कर, तपश्चर्या कर भो यदि ध्यानकी सिद्धि नहीं होती है तो मुक्ति नहीं है यह सार भव्योंका कृत्य है। दूर भव्योंको इसकी प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए हे भव्य ! ध्यानालंकारको धारण करो। आगे तुम्हें मुक्तिस्त्रीकी प्राप्ति होगी ! आज पंचैश्वर्यको प्राप्ति होगी। अब उससे देरी नहीं है, बिलकुल समय निकट आ गया है अभी उन पंचसंपत्तियोंके नामको में क्यों कहूँ। आत्मयोगको धारण करो। अभी हाल ही तुम्हें उन पंचसंपत्तियोंका दर्शन होगा 1 विचारकर आँख मीत्रकर ध्यानमें बैठो। इस प्रकार कहकर भगवन्तने अपनी दिव्यवाणीको रोक दिया । सम्राट्ने भी 'इश्छामि' कहकर ध्यान करना आरम्भ किया।
उत्तरीय वस्त्रको निकालकर कटिप्रदेश में बांध लिया एवं स्वयं .सिद्धासनमें विराजमान होफर सुवर्णकी पुतलोक समान एकाग्रता से बैठ गये।
वायुओंको ब्रह्मरंध्रपर चढ़ाया, आँखोंको मींचकर मनको आत्मामें लीन क्रिया । अन्दर प्रकाश का उदय हुआ । वस्त्र, आभरण आदि शरीर में थे, परन्तु आत्मा नग्न था। हंस जिस प्रकार पानीको छोड़कर दूधको हो ग्रहण करता है, उसी प्रकार परमहंस सम्राट्ने शरीरको छोड़कर हंस ( आत्मा ) को ही प्रहण किया। अत्यन्तगुप्त तहखाने में एक बिजलीको बत्ती जलनेपर जो हालत होती है वही आज सम्राट्की दशा है । उसे कोई नहीं जानता है अन्दर आत्मप्रकाश देदीप्यमान होरहा है। शायद भरतेश्वर उस समय उज्ज्वल चांदनीके परिधान में हैं, बिजलीको शरीरभर धारण किए हुए हैं। इतना ही क्यों, उत्तम मोती या मुक्तिकांताको मालिंगन दे रहे हैं । आकाशमें विहार करनेके समान सिद्धलोकमें विहार कर रहे हैं। इतना हो क्यों ? चाहे जिस सिद्धसे एकान्तमें बातचीत कर रहे हैं। वहाँपर बोली नहीं, मन नहीं, तन नहीं, इंद्रिय समूह नहीं, कर्मका लेश भी नहीं, केवल ज्योतिस्वरूप ज्ञान ही आत्मस्वरूपमें उस समय दिख रहा है। एक बार तो स्वच्छ चांदनीके समान आत्मा दीखता है, जब कर्मका अंश आता है तो फिर ढक जाता है, फिर प्रकाशित होता है।
इस प्रकार घासकी आगके समान वह आत्मा चमकता रहा है । तेज प्रकाश होनेपर शुक्लध्यान है उसमें फिर कम ज्यादा नहीं होता है मन्द प्रकाश धर्मध्यान है। उसमें कभी-कभी कम ज्यादा होता है। जब आत्मवर्शन होता है तब आनन्द होता है। कर्मका पिंड एकदम सरने लगता