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भरतेश वैभव
१९१ हमने उनको ऐसा कष्ट क्या दिया है देखिये तो सहो ! हमारे व्रत, नियम आदिका फल व्यथं हआ उनसे हमें अल्पफल मिला, सम्पत्ति केवल दोखकर चली गई। हाय ! हम कितनी पापिनी है। इस प्रकार सम्राट्के सामने अत्यन्त दीनताके साथ वे दुःख करने लगो। ___ भरतेश्वर उनको सांत्वना देते हुए कहने लगे कि देवियों ! शान्त रहो, वे अपनेको कष्ट देकर जाने के लिए हो आये हुए थे, अब दुःख करनेसे क्या प्रयोजन है? उन कुमारोंके विवाह मंगलका हम विचार कर रहे 'थे। उन्होंने हो दूसरा विचार किया, मनुष्य स्वयं एक विचार करता है तो विधि और हो सोचती है, यह वचन प्रत्यक्ष अनुभवमें आया। में इन पुत्रोंके योग्य कन्याओंके सम्बन्धमें विचार कर रहा था, परन्तु वे कहते हैं कि हमें कन्या नहीं चाहिए, पिताजो कन्या किसके लिए देख रहे हैं? . पूर्वजन्मके कर्मको कौन उल्लंघन कर सकता है ? नहीं तो क्या इस उमरमें यह विचार? हाथसे जो बात निकल गई उपके लिए को प्रयोजन है ? अब आप लोग दुःख करे तो क्या वे आ सकते हैं ? कभी नहीं फिर व्यर्थ ही रोनेसे क्या प्रयोजन ? इसलिए उनको अब भूलनेका यत्न करो, नहीं तो तुम्हारा विवेक किस कामका ? पुत्रोंके रहते हुए रत्नोंके समान समझकर प्रेम करना चाहिए। उनके चले जानेपर कांचके समान समझकर उनको भूलना चाहिये । वे तपके लिए गये हैं, ना ? फिर तो अच्छा हआ कहना चाहिए। कुपयके लिए तो नहीं गये ? अपकीति करनेपर रोना चाहिये, निर्मल मार्गपर जानेपर दुःख क्यों? एक बात और है । तपको धारण कर भी मरीचिकुमारके समान उन्होंने मिथ्यामार्गका अवलम्बन नहीं किया । अपने दादा (आदिप्रभु) के पास ही गये । इसके लिए दुःख क्यों करना चाहिए? और एक बात सुनो ! राजा होते तो उनको मेरे राज्यको प्रजायें नमस्कार करतो थीं। परन्तु अब तो पन्नगामरतरलोकको समस्त जनता उनके चरणों में मस्तक रखती है ।
अनेक स्त्रियोंके पुत्र राज्यको पालन कर रहे हैं। परन्तु आपके पुत्र समस्त' विश्वको अपने चरणों में झुकाते हैं, इससे बढ़कर आप लोगोंका भाग्य और क्या हो सकता है ? दुःखसे शरीर म्लान होता है, आयुष्यका ह्रास होता है । भयंकर पापका बन्धन होता है। आप लोग विबेकी होकर इस प्रकार दुःख क्यों करतो हैं। बस ! शान्त रहो। वीणाजी! विद्मवती! सुमनाजी! प्रिये वीणादेवी ! भावो ! इत्यादि प्रकारसे बुलाते हुए उनको आँखोंको अपने हायसे पोंछते हुए भरतेश्वरने कहा कि अब