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________________ १७८ भरतेश वैभव रविकोतिकुमारने कहा कि सोमप्रभ जिन जयवन्त रहे। श्रेयांसस्वामीको नमोस्तु ! इस वचनसे वे सत्र कुमार इन केवलियोंसे परिचित हुए । हस्तिनापुरके राजा सोमप्रभ व श्रेयांस सहोदर हैं। उन्होंने अपनी सर्व राज्यसंपत्तिको मेघेश्वरके (जयकुमार) हवालाकर दीक्षा ली एवं आज इस वैभवको प्राप्त किया। जिन ! जिन ! धन्य है जिनदीक्षा कोई सामान्य चीज नहीं है । वह तो लोकपावन है। इस प्रकार कहते हुए उन दोनों केलियोंको भक्तिसे प्रणाम किया व आगे बढ़ें! बागे बढ़नेपर अत्यन्त कांतियुक्त दो केवलियोंका दर्शन हुआ । रविकीर्ति कुमारने कहा कि कच्छ व महाकच्छ जिन्दको मैं भक्तिसे वन्दना करता हूँ। ये तो दोनों चक्रवर्ती भरतके खास मामा हैं। और अपने राज्यसे मोहको त्यागकर यहाँ केवली हुए हैं, धन्य हैं इस प्रकार विचार करते हुए वे आगे बढ़े। वहाँपर उन्होंने जिस कालोका दर्शन किया यह यहाँ उपस्थित सर्व केवलियोंसे शरीरसे हृष्टपुष्ट दीर्घकाय या, और सुन्दर था, विशेष क्या, उस समयका कामदेव हो था । रत्नपर्वत ही आकर जिन रूपमें खड़ा हो इस प्रकार लोगोंको आश्चर्य में डाल रहा पा। रविकीतिराजने भक्तिसे कहा कि भगवान् बाहुबली स्वामोके चरणोंमें नमस्कार हो । सर्व कुमारोंने आश्चर्य व भक्ति के साथ उनकी वन्दना की। ____ आगे बढ़नेपर और भी अनेक केवली मिले, जिनमें इन कुमारोंके कई काका भी थे जो भरतेशके सहोदर हैं। परन्तु हम भरतचक्रवर्तीको नमस्कार नहीं करेंगे, इस विचारसे अपने-अपने राज्यको छोड़कर दीक्षित हुए । ऐसे सौ राजा हैं। उनमें से कइयोंको केवलशानकी प्राप्ति हुई थी। उन केवलियोंकी उन्होंने भक्तिसे वंदना की। और मनमें विचार करते हुए आगे बढ़े कि जब हमारे इस पितृसमुदायने दीक्षा लेकर कर्मनाश किया तो क्या हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम भी उनके समान ही होवें ? अन्दरके लक्ष्मीमडपमें आनन्द के साथ तीन प्रदक्षिणा देकर बाहरके लक्ष्मी मंडपमें आये। वहाँपर १२ सभाओंको व्यवस्था है वहाँपर सबसे पहिली सभा आचार्यसभा कहलाती हैं। वे कुमार बहुत आनन्दके साथ उस सभामें प्रविष्ट हुए | उस ऋषिकोष्ठकमें हजारों मुनिजन हैं । तथापि उनमें ८Y मुख्य हैं, वे गणनायक कहलाते हैं उनमें भी मुख्य वृषभसेन नामक गणधर थे, उनको कुमानेि बहुत भक्तिके साथ नमस्कार किया | सार्वभौम चक्रवर्ती भरतके तो वे छोटे भाई हैं, परन्तु शेष सो अनुओंके लिए तो बड़े भाई हैं। और सर्वज्ञ भगवान आदि प्रभुके वे प्रधान मंत्रो हैं, ऐसे अपूर्वयोगी वृषभसेन गणरषरकी उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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