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________________ ર भरतेश वैभव समान तीनलोकके सूर्यकी कर्पूरदीपकसे आरती वे कुमार कर रहे हैं, उस समय आयंजन जयजयकार कर रहे हैं । भगवंतको वे धूपका अर्पण कर रहे हैं। उस धूपका घूम कृष्णवणं विरहित कांतिसे युक्त होकर आकाशप्रदेश में जिस समय जा रहा था, उस समय सुगन्धसे युक्त इन्द्रधनुषके समान मालूम हो रहा था। स्वामिन्! विफल होनेवाला यह जन्म आपके दर्शनसे सफल भया । इसलिए कर्मनाटक अफल हो, एवं मुक्ति सफल हो। इस प्रकार कहते हुए उत्तम फलको समर्पण करने लगे । उत्तम रत्नदीप, सुवर्ण व रत्ननिर्मित उत्तम फलोंसे युक्त मेरूपतके समान उन्नत असे भगवंतकी पूजा की । संतापको पानेवाले समस्त प्राणियों के दुःखकी शांति हो इस विचारसे भगवंत के चरणोंमें शांतिधारा की वह शांतिधारा नहीं थी, अपितु मुक्तिकांता के साथ पाणिग्रहण होते समय की जानेवाली जलधारा थी । एवं चांदी सोना आदिसे निर्मित उत्तमपुष्पोंसे भगवंतकी पुष्पांजलि की । साथ ही मोती, माणिक, तोल, गोमेंक, हीरा, बेड, पुष्यराग आदि उत्तमोत्तम रत्नों के वार किया। अब वाद्यघोष (बाजेका शब्द) बंद हो गया । विद्यानंद वे कुमार प्रभुके सामने खड़े होकर स्तुति करनेके लिए उच्चुक्त हुए । भगवन् ! अद्य वयं सुखिनो भूम जयजय जातिजरातंक मृत्युसंचय दुरदुःखसंहार ! जयजय निश्चित शांत निर्लेप ! भवदोय पावन चरण वर शरण पापांधकारविद्रावण मदनदर्पाहरण भवमथन ! कोपाग्नि शीतल जलधर ! संसार संताप निवारक कर्म महारण्यदावाग्नि ! दर्शविधधर्मोद्धार सुसार ! धर्माधर्मस्वरूपं दर्शय ! कर्म निर्मूलसे निर्मल पदसारकर हे महादेव । यह जगत् अत्यन्त विशाल है। उस जगत्से भी विशाल आकाश है। उससे भी बढ़कर विशाल आपका ज्ञान है। आपकी स्तुति हम क्या कर सकते हैं ? कल्पवृक्ष से प्राप्त दिव्यान्नके: सुखसे भी बढ़कर निरूपम निजसुखको अनुभव करनेवाले आपको सामान्य वृक्ष के फल व भक्ष्योंको हम अर्पण कर प्रसन्न होते हैं यही हम बालकों की बंचलभक्ति है । स्वामिन् । ध्यान में बाल्या के अन्दर बापको साकर बावशिके श्राग
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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