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________________ भरतेश वैभव हे भव्य ! यह मेरी पसन्दको चीज है । सिद्ध भी इसे पसन्द करते हैं, मैं हूँ सो यह है, यह है सो मैं हूँ। इसलिए तुम इसे विश्वास करो । पसन्द करो । निरीक्षण करो। यही मेरी आज्ञा है। पहिले जितने भी सिद्ध मुक्त हुए हैं वे सब इसी आचरणसे मुक्त हुए हैं । और हमें व आगे होनेवाले सिद्धोंको भी यही मुक्तिका राजमार्ग है। यही पद्धति है इस आज्ञाको तुम दृढ़ताके साथ पालन करो। हे भव्य ! आत्मसिद्धि के लिए और एक कलाके शानकी आवश्यकता है । उसे भी जान लेना चाहिए । इस लोकमें कार्माणवाणायें (कर्मरूप बनने योग्य पुद्गल परमाणु ) सर्वत्र भरी हुई हैं। उन पुद्गलपरमाणुरूपी समुद्र के बीच में मछलियोंके समान यह असंख्यात जीव डुबको लगा रहे हैं। राग, द्वेष, मोह आदियोंके द्वारा उन परमाणुओका आत्माक साथ सम्बन्ध होता है। परस्पर सम्बन्ध होकर वे ही कार्माणरज आठ कर्मोके रूपको धारण करते हैं । उन कर्मोके बंधनको तोड़ना सरल बात नहीं है। सस बन्धनको ढीला करनेके लिए यह आत्मा स्वयं ही समर्थ है। एक की गांठ दूसरा खोलकर छुड़ाना चाहे तो वह. असम्भव है । स्वयं स्वयं के आत्मापर मग्न होकर यदि उस गाँठको खोलना चाहे तो आत्मा खोल सकता है । मैं तुम्हारी गांठको खोलता हूँ यह जो कहा जाता है यही तो मोह है, उससे तो बंधन ढीला न होकर पूनः मजबूत हो जाता है । इसलिए किसीके बंधनको खोलने के लिये, कोई जावे तो वह मोहके कारणसे उलटा बंधनसे बद्ध होता है। एक गांठको खोलने के लिए जाकर यह तीन गाँठसे बद्ध होता है । इसलिए विवेकियोंको उचित है कि वे कभी ऐसा प्रयत्न न करें। इसलिए आत्मकल्याणेच्छु भन्यको उचित है कि वह अनेक विषयोंको जानकर आत्मयोगमें स्थिर हो जाये, तभी उसे सुख मिल सकता है । अणुमात्र भी भाव कर्मोको अपनाना उचित नहीं है, ध्यानमें मग्न होना ही आत्माका धर्म है । तुम भी ध्यानी बनो। हे रविकोति ! तुम्हें, तुम्हारे सहोदरोंको, एवं तुम्हारे पिताको अब संसार दूर नहीं है । इसी भवमें मुक्तिको प्राप्ति होगी। इस प्रकार आदि प्रभुने अपने अमृतवाणीसे फरमाया । ___इस बातको सुनसे ही रविकीर्तिके मुख में हसीकी रेखा उत्पन्न हुई, आनन्दसे वह फूला न समाया । स्वामिन् ! मेरे हृदयको शंका दूर हुई भक्तिका भेद अब ठीक समझमें आगया। आपके चरणोंके दर्शनसे मेरा जीवन सफल हुआ, इस प्रकार कहते हुए बड़ी भक्सिसे भगवंतके चरणों में
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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