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________________ १२६ भरतेश वैभव तीन लोकको उठाकर हथेलोमें रख लेनेको शक्ति भगवंतको है, तथापि वे वैसा करते नहीं। प्रभु होकर गम्भीरहीन कृति करना उचित नहीं, इसलिए उस जिनसभामें गांभीर्यसे वे रहते हैं। हे वीरजय ! अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य व अनन्तसुख इस प्रकारके चार विशिष्ट गुण प्रभुमें हैं। उनको विद्वान् लोग अनंत चतुष्टयके नामसे कहते हैं। भाई ! ऊपर वणित बिनेद्रभगवतको चार अंतरंग सम्पत्ति हैं । इसके अलावा मुनिगण नवकेवललब्धियों का वर्णन करते हैं उनका भो वर्णन करता हूँ, सुनो ! भाई ! परमात्मतत्त्वको न जाननेवाले भव्योंको वह परमात्मा अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा उस तत्त्वज्ञानका दान करते हैं । उसे अक्षयदान कहते हैं। भगवंतके दिव्यवाक्यसे संसारभयको त्यागकर भव्यजन आत्मामृतका पान करते हैं । एवं अनेक सुखोंको पाकर आत्मराज्यको पाते हैं इसलिए आहार, अभय, औषध व शास्त्रदानका विधान लोकमें किया गया। यह आत्मा मुक्त होनेतक शरीरमें रहता है। शरीरके पोषणके लिए आहारको जरूरत है । परन्तु केवलो भगवंत आहार ग्रहण नहीं करते हैं । लाभांतराय कर्मके अत्यन्त क्षय होनेसे प्रतिसमय सूक्ष्म, शुभ, अनंत, पदगल परमाणुरूपी अमृत उनको सुख प्राप्त कराकर जाते हैं । वह जिनेंद्रके लिए दिव्यलाभ है। सुगंधपुष्पोंको वृष्टि आदिभगवंतके लिए दिव्यभोग है । और छत्र, चामर, वाघ, सिंहासन आदि सभी दिव्य उपभोग हैं जो पदार्थ एक बार भोगकर छोड़े उसे भोग कहते हैं 1 और पुनः-पुनः भोगनेको उपभोग कहते हैं । यह भोग और उपभोगका लक्षण है। यथार्थ रूपसे विश्वतत्त्वका निदमय होना उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। और शरीरकी तरफसे मोहको हटाकर आत्मामें मग्न रहना वह क्षायिकचारित्र है। इस प्रकार क्षायिकभोग व उपभोग, क्षायिक लाभ, क्षायिक दान, सायिकधारित्र व सम्यमत्व, एवं पूर्वोक्त अनन्त चतुष्टय इन नौ गुणोंको नवकेवललब्धिके नामसे कहते हैं । ___ सुख ही भोग उपभोग व लाभ गुणकी अपेक्षासे त्रिमुख भेदसे विभक्त हुआ । अर्थात् क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग व दिव्यलाभ ये आत्माके HTTA
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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